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________________ गाथा-१ आश्रय बनाकर, (जो) अन्दर निर्मल ध्यान द्वारा स्थिर हुए, इसके द्वारा हे प्रभु! आप सिद्धपद को प्राप्त हुए हैं। कुछ समझ में आया? ‘णिम्मलझाण परिट्ठया' पहले यहाँ से माङ्गलिक शुरु किया है। कर्म मिटे और कर्म गले और कर्म मन्द पड़े, इसलिए आप ध्यान में आये – ऐसा नहीं लिया है। अभी कितने ही कहते हैं न? ज्ञानावरणीय (कर्म का) क्षय होवे तो ज्ञान होगा - ऐसा कहो। ज्ञान की उत्पत्ति होगी तो ज्ञानावरणीय का क्षय हो जाता है - ऐसा मत कहो - ऐसा (कहते हैं)। कुछ समझ में आया? यहाँ पहले शब्द से यह शुरू किया है, देखो ! इसमें कर्म को याद भी नहीं किया। 'णिम्मलझाण परिट्ठया परिट्ठया' शब्द है। निर्मल शुद्ध अन्तर एकाग्र परिस्थित.... परिस्थित – पर (अर्थात् ) समस्त प्रकार से स्थिर हुए, स्वरूप में एकाग्र (हुए)। यों तो शुक्लध्यान लेना है। कुछ समझ में आया? एकदम सिद्धपद है न? परन्तु प्रथम ‘परिट्ठया' कहा है न? सम्यग्दर्शन प्राप्त हो, उसमें निर्मल शुद्धस्वरूप की भगवान की दष्टि में निर्मलरूप परिणमे तब उसका ध्यान एकाग्र होता है. स्वभाव में एकाग्र होता है परन्तु वह ध्यान समस्त प्रकार से स्वरूप में स्थिरता नहीं करता। कुछ समझ में आया? धर्मदशा प्रगट होने के काल में, धर्मदशा के प्रगट काल में इस शुद्ध चैतन्यमूर्ति की एकाग्रता का अंश प्रगट होता है, तब उसे धर्म की शुरुआत कहते हैं। यह भगवान तो शुरुआत करने के पश्चात् पूर्णता की प्राप्ति के काल के समय, उन्होंने क्या किया? - यह बात करते हैं। आहा...हा...! कहते हैं कि जिन्होंने शुक्लध्यान में स्थित होते हुए..., शुद्ध ध्यान स्थित होते हुए.... ऐसा लिखा है। भगवान आत्मा! निर्मल शब्द है न? इसलिए उसमें सब आ जाता है, शुक्ल निर्मल भी आ जाता है। यह आत्मा प्रभु, जिसमें अतीन्द्रिय आनन्द भरा है। आत्मा में - निजसत्ता में, सत्ता के अस्तित्व में, अपने होनेपने में तो अकेला अतीन्द्रिय आनन्द भरा है। निजसत्ता-अपना होनापना जो कायमी असली है, उसमें तो अकेला अतीन्द्रिय आनन्द ही पड़ा है। भान नहीं है, बाहर में गोते खाता है, धूल में और कहीं पैसे में और स्त्री में, पुत्र में, होली में बाहर में कहीं सुख है - ऐसा मूढ़ अनादि से मानता है। समझ में आया? मिथ्याभ्रमणा करके
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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