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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
पद में दूसरा पद है, वे सिद्ध परमात्मा किस प्रकार, किस विधि, किस उपाय से सिद्ध पद को प्राप्त हुए - यह बात पहले प्रसिद्ध करते हैं।
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'णिम्मलझाण परिद्वया' निर्मल अर्थात् शुद्ध ध्यान। भगवान आत्मा शुद्ध सच्चिदानन्द, ज्ञानानन्दस्वरूप, उसमें शुद्ध, निर्मल, एकाकार, स्वरूप के ध्येय से अन्तर में एकाकार होकर निर्मल ध्यान में (स्थिर होकर सिद्ध हुए हैं) । यहाँ तो ध्यान से बात ली है। भगवान आत्मा (में) मोक्षमार्ग की शुरुआत ही ध्यान से होती है। कुछ समझ में आया ? पर तरफ के जितने विकल्प, शुभाशुभभाव (होते हैं), वह तो बन्ध का कारण है। यह आत्मा, परमात्मा सर्वज्ञदेव ने शुद्धस्वरूप देखा है। कुछ समझ में आया ? भगवान ने (ऐसा आत्मा देखा है)।
'प्रभु तुम जाणग रीति, सहु जग देखता हो लाल' - सर्वज्ञ परमेश्वर से कहते हैं हे नाथ!‘प्रभु तुम जाणग रीति, सहु जग देखता हो लाल, निज शुद्ध सत्ता से सबको आप देखते हो लाल ।' हे सर्वज्ञदेव ! आप तो सर्व जीवों को शुद्ध सत्ता आनन्दमय है - ऐसा देखते हो। कुछ समझ में आया ? 'प्रभु तुम जाणग रीति, सहु जग देखता हो लाल, निजसत्ता से शुद्ध... ' निजसत्ता - अपना अस्ति, जो निज है । निज सत्ता से शुद्ध परमानन्द मूर्ति अनाकुल शान्तरस है । 'निजसत्ता से शुद्ध सबको देखते...' हे परमात्मा ! समस्त आत्माओं को उनकी निज सत्ता में - निज अस्ति में स्वयं की अस्ति में, स्वयं की हयाती में, अपने अस्तित्व में, अपने अन्तर आत्मा की मौजूदगी में, भगवान आप तो सब आत्माओं को शुद्ध देखते हो । समझ में आता है कुछ ?
यह ‘निजसत्ता से शुद्ध सबको देखते' - समस्त आत्माएँ, परमात्मा निजसत्ता से शुद्ध है। ऐसी निजसत्ता, सत्ता अर्थात् अपना होनापना, अस्तित्व; होनापना । अनादि का भगवान आत्मा, उसका होनापना पवित्र और शुद्धस्वरूप से ही उसका अस्तित्व है । उसमें (होनेवाला) कितना ही पुण्य-पाप का विकार, वह कहीं उसका निज अस्तित्व नहीं है, वह निज सत्ता नहीं है - ऐसा भगवान देखते हैं; इस प्रकार जो कोई आत्मा अपने शुद्धस्वरूप का ध्यान (करे...) देखो! उसमें एकाकार होकर निजसत्ता की शुद्धता को लक्ष्य में ध्येय में, स्थिरता में लेकर ज्ञान - श्रद्धा और चारित्र (द्वारा) इस निज शुद्ध सत्ता को