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योगसार प्रवचन (भाग-१) मुक्त है। आहा...हा...! माँगीरामजी! व्यवहार से लाभ तो नहीं परन्तु व्यवहार से मुक्त है। व्यवहार भेद, विकल्प, राग है।
भगवान आत्मा अभेद चैतन्य के अनुभव में, उसकी अभेददृष्टि में धर्मी व्यवहार से मुक्त है। समझ में आया? व्यवहार करना पड़े और होना चाहिए - ऐसा नहीं, यह कहते हैं। हो, परन्तु करना पड़े और होवे तो ठीक – ऐसा सम्यग्दृष्टि के आत्मा के ज्ञान में नहीं है। उसके बाद यह बात लेंगे। अन्य व्यवहार कहा न? समझ में आया? अन्य सर्व व्यवहार... कहाँ तक ले गये, देखो न ! वस्तु जैसे सर्व से अन्य – ऐसी अभेददृष्टि जहाँ हुई, उसमें वह सर्व व्यवहार से भिन्न है। समझ में आया? यह व्यवहार का पूंछड़ा निश्चय को लागू नहीं पड़ता – ऐसा यहाँ तो कहते हैं। आहा...हा...! समझ में आया? आहा...हा...! यह प्रभु अकेला ज्ञान का सूर्य प्रभु भिन्न है। कहते हैं कि उसे जानना, तब कहते हैं कि जिसका (स्वरूप) अपने को प्रत्यक्ष हो। जिसने पर की सहायता, मन, वाणी, राग या पर का श्रवण करना, उससे आत्मा ज्ञात होता है? (कहते हैं) नहीं। गुरु की वाणी में बोध रहा है आत्मा? बोध तो बोध में रहा है; भगवान, आत्मा में रहा है। ए...ई...!
मुमुक्षु – तब तो जवाबदारी रह जाती है।
उत्तर – ऐसा इन्होंने कहीं डाला है। ऐसा वह कहीं आया था। नहीं? ५३ तो आज चला, उसके पहले कहीं था, हाँ! इन्होंने डाला है। गुरु के बोध में ज्ञान नहीं - ऐसा कहते हैं, यह तो आ गया है, यह कहीं आया था। नहीं आया गुरु? निषेधकर्ता, ऐसा स्वयं ने कहीं लिखा था।५६ चलती है न? कहीं है अवश्य, इन्होंने एक जगह डाला था। (रेत में) तेल नहीं परन्तु तिल में है। इसी प्रकार शास्त्र में आत्मा नहीं परन्तु तन में है। जैसे मृगमरीचिका में जल नहीं परन्तु सरोवर में है; उसी प्रकार गुरुवचन में बोध नहीं परन्तु हृदय सरोवर में है - यह ५२ गाथा में है। ५२ गाथा है सही न? 'सत्थ पढं जड़ अप्पा' यह भाई, नहीं? 'लालन'... यह पहले ५३ बोल पढ़ा न? यहाँ ५२ है, उसमें जरा अन्तर है। 'सत्थ पढं तह ते विजड़ अप्पा जेण मुणंति।' ऐसा लिखा है, देखो! गुरु वचन में बोध नहीं परन्तु हृदय सरोवर में है। बोध यहाँ है, कहते हैं। मैंने कहा, कहीं पढ़ा था। कहो, समझ में आया? यह चन्द्रमा जगे, वहाँ आत्मसमुद्र अन्दर से उछलता है – ऐसा कहते हैं।