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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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मुमुक्षु - हमारी जेल बहुत अच्छी है, हमारी जेल बहुत मजबूत है - ऐसा कोई नहीं कहता ।
उत्तर - अच्छी कहता है, मेरा शरीर बहुत अच्छा है - ऐसा नहीं कहते ? हमारा शरीर मजबूत है, हमें तो कभी रोग नहीं हुआ, साठ वर्ष हुए परन्तु सोंठ नहीं लगाई, बहुत मूर्ख बोलते हैं। सब सुना है या नहीं ? साठ-साठ वर्ष हुए तो भी कभी सोंठ नहीं लगाई, परन्तु किसका गर्व करते हो तुम ? यह सड़ेगा उस दिन इसमें कीड़े पड़ेंगे.... यह कहाँ आत्मा है तो सड़े नहीं। समझ में आया ? साठ वर्ष तक कभी रोग नहीं आया, बुखार नहीं आया.... अब आवे वह अलग बात - ऐसा बहुत से कहते हैं। बहुत से वृद्ध ऐसा (कहते सुने हों। हैं? तुम्हारे पिता को कैसा होगा ? हैं? उन्हें ऐसा था, ऐसा बहुत होता है। हमने बहुत लोगों को देखा है। साठ वर्ष हुए कभी सोंठ नहीं लगाई। यह क्या है परन्तु अब ? ऐसा हमारा शरीर अच्छा, धूल भी नहीं, सब सड़ा हुआ चमड़ा है। ऐसी महिमा इसकी करता है परन्तु तुझे आत्मा की महिमा नहीं रुचती ।
आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द का कन्द अन्दर प्रभु विराजमान है । अनादि-अनन्त सनातन सत्य प्रभु आत्मा है, उसके प्रेम के समक्ष इसका प्रेम नहीं रहता। इसका प्रेम क्या ? इसके लिए तो इसे नरक की उपमा दी है । हैं ?
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जगत प्रपंचों में उलझा प्राणी आत्मा को नहीं पहचानता धंधइ पडियउ सयल जगि णवि अप्पा हु मुणंति । तहिं कारण ए जीव फुडु ण हु णिव्वाणु लहंति ॥ ५२ ॥
जग के धन्धे में फँसे, करे न आतम ज्ञान । जिसके कारण जीव वे, पाते नहिं निर्वाण ॥
अन्वयार्थ (सयल जगि धंधइ पडियउ ) सब जग के प्राणी अपने-अपने धन्धों में, लोक व्यवहार में फँसे हुए हैं, तल्लीन है ( अप्पा हु णवि मुणंति ) इसलिए निश्चय से आत्मा को नहीं मानते हैं ( तहिं कारण ए जीव णिव्वाणु ण