________________
योगसार प्रवचन (भाग-१)
३५१
ज्ञान में रमे तो.... 'तिसु अप्प मुणेई' ऐसा शब्द है न? आत्मा, भगवान आत्मा, जिसके तेज के एक समय के ज्ञान में तीन काल-तीन लोक विविध एक तत्त्व के अतिरिक्त जितने तत्त्व हैं, वे सब आत्मा की एक समय की दशा में ज्ञात हो – ऐसे तत्त्व हैं। फिर भी वे तत्त्व मेरे हैं – ऐसा ज्ञात नहीं होता। ऐसे आत्मा के चैतन्य के प्रेम में देख तो पूरी दुनिया तुझे अन्दर में प्रेम रहित (दिखेगी), उसका प्रेम कहीं लगेगा नहीं। ज्ञातादृष्टा होकर जगत की चीजों का जानने-देखनेवाला होगा. यह जानने-देखनेवाला हआ. उसे पण्य और पाप के भाव में भी प्रेम उड़ गया है। फिर यह साधन मुझे अनुकूल है और यह साधन प्रतिकूल है - ऐसा आत्मा के स्वभाव के प्रेम में यह बात नहीं रहती है। समझ में आया? आहा...हा... ! मन आत्मा के ज्ञान में रमे तो शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त कर ले। तो अल्प काल में केवलज्ञान प्राप्त करे और मुक्ति पाये।
योगीन्द्र आचार्य योगी अर्थात् धर्मात्मा... योगी अर्थात् जिनका झुकाव बाह्य के झुकाव से छूटा है और जिनका झुकाव-दिशा आत्मा की तरफ हुई है – ऐसा धर्मी सम्यग्दृष्टि से लेकर (समस्त धर्मात्मा) जीवों को कहते हैं कि अरे! मन को गाढ़भाव से अपनी आत्मा में रमाना चाहिए। तभी वीतरागता के प्रकाश से शीघ्र निर्वाण का लाभ होगा। पहला पद ले लिया क्योंकि आत्मवीर्य के प्रयोग से ही प्रत्येक कार्य का पुरुषार्थ होता है। ऐसा कहते हैं, देखो! अज्ञानी जीव पाँचों ही इन्द्रियों के विषयों में जितनी आसक्ति से रमता है.... यह भी वीर्य से (पुरुषार्थ से) है – ऐसा कहते हैं । तेरे उलटे पुरुषार्थ से पाँच इन्द्रियों के विषयों में एकाकार (होता है)। अरे... वाणी सुनने में एकाकार (हो जाता है), वह भी तेरे पुरुषार्थ की पर में उल्टी उग्रता है – ऐसा कहते हैं। हैं? भावनगर से सुनने आते हैं।
वीतराग ऐसा कहते हैं कि सुनने के प्रेम को भी छोड़। आहा...हा...! भगवान आत्मा अतीन्द्रिय... हिरण की नाभि में कस्तूरी है परन्तु उसे कस्तूरी का पता नहीं है; इसी प्रकार यह आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द का सरोवर...सरोवर...सागर अन्दर है। आहा...हा...! उसके प्रेम को छोड़कर पर में एकाकार (होकर) झुलस गया है। अतः एक बार गुलांट खा। पर का प्रेम छोड़कर यहाँ प्रेम कर! अपना प्रेम कर तो परमात्मा हुए बिना नहीं रहेगा। आहा...हा...! कहो, शशीभाई! समझ में आया?