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गाथा-४१
होगा? ऐसा कहते हैं । ऐसा कहा न? सामायिक की व्याख्या की न? सर्वार्थसिद्धि, हाँ! पूज्यपादस्वामी... आहा...हा...! आत्मा के साथ एकमेक हो जाना, आत्मामय हो जाना, वह सामायिक है। आत्मा पहले सम्यग्ज्ञान में, दर्शन में भासित हुए बिना एकमेक होना कहाँ से होगा? यह तो देह की क्रिया मैं करता हूँ, ऐसा बैठा तो (मानता है कि) मैं बैठा.... कुछ राग होवे तो यह मेरा आत्मा है – ऐसा तो यह मानता है। अनात्मा को आत्मा मानता है तो स्थिर किसमें होगा? (अनात्मा में) एकाग्र हुआ। आत्मा रागरहित और शरीररहित चीज है, उसका ज्ञान हो, वह उसमें स्थिर हो, उसे सामायिक कहते हैं । यह ४० (गाथा पूर्ण) हुई।
अनात्मज्ञानी कुतीर्थों में भ्रमता है ताम कुतिथिइँ परिभमइ धुत्तिम ताम करेइ। गुरुहु पसाएं जाम णवि अप्पा - देउ मुणेइ॥४१॥
सदगुरु वचन प्रसाद से, जाने न आतम देव।
भ्रमे कुतीर्थ तब तलक रे, करे कपट के खेल॥४१॥ अन्वयार्थ - (गुरूहु पसाएंजाम अप्पादेउ णवि मुणेइ) गुरु महाराज के प्रसाद से जब तक एक अपने आत्मारूपी देव को नहीं पहचानता है (ताप कुतिथिइँ परिभमइ) तब तक मिथ्या तीर्थों में घूमता है (ताप धुत्तिम करेइ) तब ही तक धूर्तता करता है।
अनात्मज्ञानी कुतीर्थों में भ्रमता है। कुतीर्थ शब्द का प्रयोग किया है। फिर दूसरा प्रयोग करेंगे।
ताम कुतित्थिइँ परिभमइ धुत्तिम ताम करेइ।
गुरुहु पसाएं जाम णवि अप्पा - देउ मुणेइ॥४१॥ गुरु महाराज की कृपा से जब तक एक अपने आत्मारूपी देव को नहीं