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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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इसलिए बीच में ऐसा भी कह दिया कि बीच में कुछ पुण्य-पाप, दया, दान, व्रत के विकल्प आवें वे कहीं मुक्ति का उपाय नहीं है, भवपार का उपाय नहीं है । आहा... हा...! समझ में आया ?
यह नजर से दिखता है न! आँखें उघाड़े तो दिखता है या उघाड़े बिना दिखता है ? सोने के नरिया हुआ, कहे। लो ! सबेरे आठ बजे... ए... देखो ! सोने के नरिया हुआ । बिस्तर में एक गद्दा उसमें तीन कम्बल ओढ़े, आँख को चिपका लगे देखो ! नरिया सोने का हुआ, सूरज उगा... ऐसा। किस प्रकार देखना ? नजर से दिखता हो तो ठीक (तब तो) माने परन्तु आँख उघाड़े तो दिखे या आँख उघाड़े बिना ? समझ में आया ? आहा... हा... ! यह भगवान चैतन्यसूर्य आत्मा है, यह देह में विराजमान आत्मा, यह चैतन्यसूर्य है। इसलिए चैतन्यसूर्यसचेतन में दूसरा फिर अचेतनपना न जाने ऐसा नहीं आता। ऐसा सर्वज्ञ भगवान आत्म का अनुभव करके अल्प काल में मुनि, मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
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इन्होंने दृष्टान्त दिया है। जैसे शक्कर और अनाज एकत्रित करके नौ ( प्रकार की) मिठाई बनायी जाती है.... ऐसा दृष्टान्त दिया है, है न? जैसे शक्कर को आहार के साथ मिलाकर नौ प्रकार की मिठाई बनावे उसी में नीचे है, भाई ! ३६ गाथा चलती है उसके नीचे । एक शक्कर के साथ नौ (मिठाई) बनावे तो भी उसमें शक्कर को देखनेवाला पुरुष शक्कर को अलग देखता है। हमने तो नमक का दृष्टान्त दिया है, यह शक्कर का ठीक है। शक्कर डाल-डालकर नौ मिठाई बनावे, नौ मिठाई करे परन्तु शक्कर को देखनेवाला शक्कर... शक्कर ... शक्कर देखता है, वह शक्कर ही देखता है। उसमें चने का आटा हो, गेहूँ का आटा हो, अमुक हो, वह नहीं । शक्कर.... शक्कर... शक्कर... शक्कर... शक्कर। इसी प्रकार पूरी दुनिया में जहाँ देखे तो चैतन्य... चैतन्य... चैतन्य... जाननेवाला... जाननेवाला... जाननेवाला... जाननेवाला.... वह मैं । ज्ञात हो जाये दूसरी वस्तु तो क्या ? मैं तो जाननेवाला हूँ। जड़ का ज्ञान, संवर का ज्ञान, निर्जरा का ज्ञान, मोक्ष का ज्ञान, दूसरे जीव का ज्ञान, अजीव का (ज्ञान) परन्तु ज्ञान... ज्ञान वह मैं हूँ । समझ
आया? बातों को पकड़ना कठिन पड़ता है। मूल बात कभी सुनी नहीं, अनन्त काल से ऊपर का ऊपर चला गया है। मूल चीज क्या है ? उसे पकड़ने का कभी प्रयत्न नहीं किया