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________________ २७२ गाथा-३६ ___ 'सव्व अचेयण जाणि' देखो! 'जाणि' लिया है न? 'सव्व अचेयण जाणि जिय एक्क सचेयण सारु' आहा...हा...! आचार्यों के कथन हैं। पेट में अन्दर इतना भरा है न? 'सव्व अचेयण जाणि जिय एक्क सचेयण सारु' इन सबको जान, यह भी नहीं परन्त यह सचेतन सार. यह सार है। समझ में आया? एक भगवान जीव ही सचेतन है. जानने-देखनेवाला है। देखो! जीव रागवाला है या पुण्यवाला है या आस्रववाला है, वह जीव नहीं। समझ में आया? इन सबको जाननेवाला (है – ऐसा कहना), वह भी व्यवहार हो गया, भाई ! आहा...हा...! इस प्रकार सब अचेतन, काल, क्षेत्र, द्रव्य-अनन्त द्रव्य, अनन्त क्षेत्र, त्रिकाल काल, पुण्य-पाप, अचेतन सब भाव, सब अचेतन को जान और जाननेवाला एक चैतन्यसार है - ऐसा जान । समझ में आया? आहा...हा... ! यह तो मुनियों की अन्दर बहुत मस्ती की वाणी है। थोड़े में बहुत भरा है परन्तु इसकी टीका नहीं मिलती। टीका होवे तब हो न ! समझे न!'सव्व अचेयण जाणि जिय एक्क सचेयण सारु' आहा...हा...! एक जाननेवाला... जाननेवाला... जाननेवाला... सार है। ऐसे आत्मा को जान तो तेरा कल्याण होगा, इसके अतिरिक्त तेरा कल्याण नहीं है। जो जाणेविणि पमममुणि इस जीवतत्त्व का अनुभव करके... जानकर अर्थात् अनुभव करना। जो जाणेविणि पमममुणि इस भगवान आत्मा से अन्य अचेतन, इन्हें जान और जाननेवाले को सार जान, सार जान। अकेला सर्वज्ञस्वभावी भगवान आत्मा है। चैतन्यस्वभाव, चैतन्यस्वभाव.... जड़ में चैतन्य का अंश बिल्कुल नहीं है। तब यह चैतन्यस्वभाव परिपूर्ण स्वभाव से भरपूर चैतन्यसार, कहते हैं । जाणेविण आत्मा ज्ञानानन्द का अनुभव करके, हे आत्माओं! परम मुनि लह पावइ भवपारु अल्प काल में सन्त, भव का पार पा जाते हैं । आहा...हा...! जाणेविण इसका अनुभव करके.... भगवान आत्मा वस्तु है, उसे जानना। यह व्यवहार कहा, यह सार चैतन्य इसे जानना अर्थात् अनुभव करना.... इसके अनुभव द्वारा परम सन्त भव का पार पा गये हैं। संसार का अन्त लाने का, भगवान आत्मा के स्वरूप का अन्तर्मुख अनुभव करना, यही भव का पार लाने का उपाय है। कहो, समझ में आया?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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