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________________ २५० गाथा-३३ मान लिया, वह ठीक नहीं है। व्यवहार का पालना वह तो अभिमान है, मिथ्यात्व है, राग है – ऐसा कहते हैं। राग पाले और ऐसा कहना कि हम मुनि हैं.... राग वह मुनिपना है ? व्यवहार के व्रतादि मुनिपना है ? बन्ध का कारण है। क्या कहना? इस धूल का कारण है। यह निश्चय वस्तु नहीं तो अकेला व्यवहार बन्ध का कारण है - ऐसा मानना चाहिए। बारह व्रत पाले, पञ्च महाव्रत पाले.... समझे न? आगम प्रमाण शुभक्रिया आदि करे और माने कि हम साधु हैं, श्रावक हैं तो मूढ़ है, कहते हैं । व्यवहार की क्रिया में मुनिपना -श्रावकपना कहाँ से आया? समझ में आया? वह तो पुण्य-बन्ध का कारण है। शुद्धात्मानुभव ही मुनिपना है, वही श्रावकपना है, वही जिनधर्म है – ऐसा समझकर ज्ञानियों को शरीराश्रित क्रिया में अहंकार नहीं करना चाहिए। कितना ही अर्थ तो ठीक किया है। मुमुक्षु - चौथे गुणस्थान में अनुभव होता है? उत्तर – हाँ, होता है न; श्रावक को अनुभव होता है - यह तो पहले ही लिखते हैं। आत्मा के सम्यग्दर्शन में स्वरूपाचरणरूप अनुभव, एक ही मोक्ष का मार्ग चौथे से शुरु होता है। जितने व्यवहार के विकल्प यह सब होते हैं, यह तो बात की, वे होते हैं। पूर्ण नहीं तो होते हैं परन्तु उनमें अहंकार करना कि यह मेरे, अभिमान किया कि हम करते हैं, विकार को हम करते हैं – ऐसा मानना तो निर्विकारी चीज तो पूरी रह गयी। समझ में आया? अहंकार नहीं करना। भावपाहुड़ का उद्धरण दिया है। हैं ? मुमुक्षु - निश्चय की अंगुली पकड़कर चलते हैं। उत्तर - बिल्कुल अंगुली पकड़कर नहीं चलता, निश्चय है तो व्यवहार है – ऐसा नहीं और व्यवहार है तो निश्चय है – ऐसा नहीं; दोनों स्वतन्त्र हैं । व्यवहार है तो निश्चय है – ऐसा नहीं। स्वाश्रयपना भिन्न है, पराश्रयपना भिन्न है; दोनों चीज स्वतन्त्र है। अंगुली पकड़कर लावे न? अलग-अलग हैं। उनमें अंगुली कौन पकड़े? वास्तव में तो आत्मा शुद्ध चैतन्य की दृष्टि ज्ञान हुआ, इसलिए सम्यग्दृष्टि इस व्यवहार से मुक्त है। व्यवहार है अवश्य; जैसे परद्रव्य हैं, ऐसे वह है परन्तु उससे मुक्त है।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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