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योगसार प्रवचन (भाग-१)
२४९ नहीं है। समझ में आया? एक ऐसा नियमरूप उपाय..... परम पवित्र मोक्षदशा, उसका कारण भी पवित्रता के परिणाम निश्चय स्वसंवेदन, निश्चयरत्नत्रय – यह एक ही उपाय है; दूसरा कोई उपाय नहीं है। समझ में आया?
व्यवहारचारित्र किया जाता है, वह मात्र व्यवहार है, निमित्त है। जो कोई व्यवहारचारित्र ही पाले तो भ्रम है, वह निर्वाण का साधन नहीं करता। अकेले पञ्च महाव्रतादि पाले, अट्ठाईस मूलगुण पाले, बारह व्रत पाले तो उनसे मुक्ति नहीं होती। (मुक्ति माने तो) भ्रम है, टोडरमलजी ने ऐसा लिखा, निर्वाण का साधन है नहीं, लो! मन-वचन-काया की क्रिया को मोक्ष का उपाय मत जान।अभी थोड़ी चर्चा आयी है, ऐ...ई...! देवानुप्रिया.... इस मन-वचन-काया की क्रिया से मोक्ष नहीं है – ऐसा यहाँ सोनगढ़वालों ने लिखा है न? उन इक्कीस उत्तर में। तो कहते नहीं; झूठ बात है। मन -वचन-काया की क्रिया मोक्षमार्ग है। क्रिया अभी. हाँ! वे परिणाम और योग नहीं. आहा...हा...! मन-वचन-काया योग: उनकी क्रिया वह योग कहा है परन्त योग अर्थात कम्पन होता है वह। अन्दर कम्पन होता है, वह योग है, वह बाहर की क्रिया को निमित्त है। मन-वचन और काया के पुद्गल तो जड़ हैं, उनमें प्रदेश कँपते हैं वह योग है और वह योग बन्ध का कारण है। वह योग बन्ध का कारण है, वह कहीं मोक्ष का कारण नहीं है। देखो, यहाँ स्पष्ट लिया. देखा? इन शीतलप्रसादजी को उडाते हैं. इन्होंने भी पढा नहीं था? स्वयं को पूरा उड़ाया इसका इसे भान नहीं होता। आहा...हा...!
व्यवहारचारित्र को व्यवहारमात्र समझ। है न? निश्चयचारित्र के बिना उससे मोक्षमार्ग में कुछ लाभ नहीं है। मुनि का या श्रावक का व्यवहार संयम यथार्थ रीति से शास्त्रानसार पालन करके भी ऐसा अहंकार मत कर कि मैं मनि हूँ.... व्यवहार से पाँच महाव्रत पालन करके कहे मैं मुनि हूँ। व्यवहार से पालते हैं, मैं मुनि हूँ, मैं क्षुल्लक हूँ, यह व्यवहार का अभिमान है – ऐसा कहते हैं। पञ्च महाव्रत, अट्ठाईस मूलगुण पाले, बारह व्रत पाले तो कहता है हम श्रावक हैं, हम मुनि हैं, हम ब्रह्मचारी हैं, धर्मात्मा गृहस्थ हैं।
ऐसा करने से उसके वेश और व्यवहार में ही मुनिपना अथवा गृहस्थपना