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गाथा-४
मिथ्यादर्शन संसार का कारण है। इसमें कर्म खोलेंगे। यहाँ कर्म की जरूरत नहीं है, तो भी अर्थ करेंगे।
कालु अणाइ अणाइ जीउ भवसायरु जि अणंतु। मिच्छादसण्मोहियउ ण वि सुह दुक्ख जि पत्तु॥४॥
काल अनादि है.... अनादि का काल है। किसी समय काल की आदि है ? जब पूछो तब काल अनादि है। वर्तमान, भूत और भविष्य - ऐसा अनादि काल चला आता है। अनादि का काल है। आचार्य, तीन साथ में लेते हैं । अनादि काल, जीव अनादि। संसार में भटकनेवाले जीव भी अनादि हैं। निगोद से लेकर नौवें ग्रैवेयक तक, चार गतियों में भटकनेवाले दुःखी, दु:खी, दु:खी हैं। एक थोड़ी-सी प्रतिकूलता आती है वहाँ चिल्लाता है। एक जरा-सी अनुकूलता आवे, वहाँ हर्ष का सबड़का मानता है। मानता है, सबड़का मानता है। धूल में भी नहीं है। दुःखी... दु:खी... दु:खी है। जरा कोई पाँच-पचास लाख मिले, अभी तो पाँच-पचास लाख में भी सुख नहीं होता।
मुमुक्षु - रुपये की कीमत घट गयी है।
उत्तर - कीमत घट गयी, कोई रास्ते में कहा था कि रुपया घट गया। कोई कहता था, हैं ? रुपये का भाव घट गया - ऐसा कहता था कोई । क्या कहता था, नहीं? सवेरे। रुपया का भाव घट गया, कहता था। छत्तीस, घट गया - ऐसा कुछ होगा। अपने को कुछ पता नहीं पड़ता। रुपये का भाव (क्या)? रुपया तो है वह है। कल्पना में घालमेल किया - ऐसा कुछ आया है या नहीं? तुम्हें तो सब पता होता है।
काल अनादि और संसारिक जीव भी अनादि । संसारी जीव अनादि। इसमें यह सिद्ध करना है न? उसमें से सिद्धपने का उपदेश देना है। संसारी जीव भी अनादि के परिभ्रमण करते हैं। कभी संसार नहीं था और जीव को संसार नया हुआ है। ऐसा है नहीं। कल कोई प्रश्न करता था, भाई! है ? यह अशुद्धता आयी कहाँ से? यह संसार आया कहाँ से? संसार पर्याय में अशुद्धता अनादि की है। फिर दोनों बाहर बातें करते थे। मैं अन्दर सुनता था, उस सोने के पत्थर की.... सोना और पत्थर दोनों इकट्ठे हुए।