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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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और मनुष्यपना मरकर 'देव होवे तो' यह याद आ गया अभी। उसमें ऐसा है । देव पाये तो लाभ पाया। धूल में पाया। समझ में आया? देव में लाभ कहाँ ? यहाँ तो चार गति का पाना ही दुःख और अलाभ है। आहा...हा...!
प्रश्न - उसकी अपेक्षा तो ठीक है न?
उत्तर - जरा भी अच्छा नहीं है। उसकी अपेक्षा अच्छा क्या धूल होगा? चारों गतियाँ भट्टी (हैं) यह आकुलता के दुःख से भट्टी जलती है। है? सच्चा होगा? तुम्हें कहाँ उसका अनुभव है ? इसलिए इतनी बात की है कि जिसे भय (लगा है - ऐसा) तीसरी गाथा में आया था।
संसारहँ भयभीयाहं मोक्खहँ लालसियाहँ।
अप्पासंबोहणकयइ कय दोहा एक्कमणाहं॥३॥ जिसे आत्मा को चार गति में भटकने का त्रास लगा है और जिसे आत्मा की मोक्षदशा की ही अभिलाषा और लालसा है, उसके लिए मैं यह एक मन से, एकाग्र होकर यह योगसार शास्त्र, दोहा कहता हूँ - ऐसा कहते हैं । अब, लिया देखो! संसार का पहला कारण ।
संसार का कारण : मिथ्यादर्शन कालु अणाइ अणाइ जीउ भवसायरु जि अणंतु। मिच्छादंसण्मोहियउ ण वि सुह दुक्ख जि पत्तु ॥४॥
जीव काल संसार यह, कहे अनादि अनन्त।
मिथ्यामति मोहित दुःखी, सुख नहिं कभी लहन्त॥ अन्वयार्थ - (कालू अणाइ) काल अनादि है (जिउ अणाइ) संसारी जीव अनादि है, (भव सायरु जि अणंतु ) संसारसागर की अनादि अनन्त है, (मिच्छादसणमोहियउ) मिथ्यादर्शन कर्म के कारण मोही होता हुआ जीव (सुहण वि दुक्ख जि पत्तु ) सुख नहीं पाता है, दुःख ही पाता है।