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गाथा - ३१
उत्तर – नहीं, नहीं; अनन्त भव तक.... अनन्त भव तक आत्मा के सन्मुख बिना की क्रिया अनन्त बार करे तो उसे कुछ लाभ नहीं होता। यह करोड़ तो एक अंक रखा है। कोरे कागज में चाहे जितने शून्य लिखा करे तो ईकाई नहीं आती, फिर करोड़ शून्य लिखो - ऐसा कहो या अनन्त शून्य लिखो - ऐसा कहो ( - सब एकार्थ है) । समझ में आया ? मोक्षपाहु की गाथा दी है, यह जरा ठीक है। वह समयसार की दी है, वह अच्छी दी है 1 यह दी है, वह ठीक है ।
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आत्मा का स्वभाव है, आत्मा का द्रव्यस्वभाव है, उस द्रव्यस्वभाव से परिणमना, वह मोक्ष का कारण है और रागादि तो परद्रव्यस्वभाव है । विकल्प, पञ्च महाव्रत, दया, दान आदि के विकल्प तो परद्रव्यस्वभाव है । वह परद्रव्यस्वभाव तो दुर्गति है, बन्धन है । स्वद्रव्यस्वभाव से स्वगति है । (मोक्षपाहुड में कहा है कि )
जो पुण परदव्वरओ मिछ्छआदिट्ठी हवेइ सो साहू | मिच्छत्त परिणदो उण वज्झदि दुटुटुकम्मेहिं ॥ १५ ॥
ऊह.....
ओ...हो.... ! लो ! आचार्यों ने तो शास्त्र में बहुत काम रखा है ? परन्तु गिने तब न ! हैं ? निभर हो गया, निभर । मुनर हो गया। मुनर नहीं कहते ? हैं ? ऐसे हुँकार करे नहीं, परन्तु . तो कर। ऐसे इसे चाहे जितनी सत्य की बात कान में आवे परन्तु मूढ़ अन्तर ढलता नहीं - ढलता नहीं। नहीं, ऐसा होता है; नहीं, ऐसा होता है - ऐसा कहे । नहीं, नहीं, यह ऐसे होता है। यह झूठ ठहराना चाहता है । आहा... हा...! अरे ... प्रभु ! तू कहाँ जाएगा ? भाई ! आहा....हा...! मार्ग तो ‘एक होय तीन काल में '' एक होय तीन काल में परमारथ का पन्थ' - कहीं दो मार्ग होते हैं? सर्वज्ञ परमेश्वर त्रिलोकनाथ वीतरागदेव द्वारा कथित निश्चय स्वाश्रय मार्ग, वह एक ही मोक्ष का मार्ग है। समझ में आया ? पराश्रित, वह मोक्षमार्ग नहीं है ।
✰✰✰ पुण्य पाप दोनों संसार है
पुणिं पावइ सग्ग जिउ पावइ णरयणिवासु ।
वे छंडिवि अप्पा मुणइ तउ लब्भइ सिववासु ॥ ३२ ॥