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गाथा-३१
और वे नागजी । वे इस वेदान्त की बात करने लगे। एक आत्मा है और व्यापक है। यह जाने कि सुधरा हुआ है, सेठ व्यक्ति दिखता है, सुधरा हुआ है, फिर गाँव में बड़ा गृहस्थ ऐसा लगता है। (तब सेठ कहता है) अरे... महाराज ! बाढ़ बैल को खाये, हाँ! मुँह पर कहा। अरे... ! तुम साधु यह मुँहपट्टी लेकर बैठते हो, हाथ में रजोणू और तुम अद्वैत आत्मा की बात करो? यह भगवान द्वारा कथित अनन्त आत्मा, भगवान द्वारा कथित अनन्त परमाणु, यह सब छह द्रव्य और यह सब कहाँ गया? बल्लभदासभाई! हैं ?
चलता है, भाई! यह तो अनन्त संसार अनन्त काल से ऐसे ही चलता है।आहा...हा...!
वय तव संजम सीलु - देखो! इतने शब्द लिये हैं । व्रत पाले, वैय्यावृत्त करे, देव -गुरु की विनय करे, शास्त्र का स्वाध्याय करे, इन्द्रियों का दमन करे (- यह) संयम की व्याख्या है। सीलु अर्थात् कषाय की मन्दता का स्वभाव; कोमल... कोमल... कोमल... कोमल राग मन्द स्वभाव, शील, ब्रह्मचर्य पाले, जिय ए सव्वे अकइच्छु – यह सब अकृतार्थ है; इनसे तेरा कुछ भी कार्य सिद्ध हो – ऐसा नहीं है। जाणइ ण जाण इक्क भगवान आत्मा, जिसमें पवित्रता का धाम, पवित्र भगवान आत्मा, उस पवित्र आत्मा के पवित्र शुद्धभाव को.... भाव है न? देखो न? सुद्धऊ भावु पवित्तु देखो! परु सुद्धउ भाउ पवित्त। यह भगवान आत्मा वीतरागभाव. आनन्दभाव, शान्तभाव, अकषायभाव, स्वच्छभाव, प्रभुताभाव, परमेश्वरभाव – ऐसे अनन्त भाव का शुद्ध से भरा हुआ भगवान - ऐसे शुद्धभाव को जब तक अन्तर्मुख होकर न जाने, तब तक अज्ञानी का व्यवहारचारित्र वृथा है। कोरे कागज में एक बिना की शून्य, रण में पुकार मचाने जैसा (व्यर्थ) है। आहा...हा...! समझ में आया? रतिभाई! यह पढ़ाई किस प्रकार की?
पुण्य बाँधकर.... देखो! इन्होंने नीचे अर्थ किया है, थोड़ा, हाँ! पुण्य बाँधकर संसार बढ़ानेवाले हैं। इकतीस गाथा, नीचे अर्थ किया है। पुण्य बाँधकर संसार बढ़ानेवाले हैं। इन्होंने तो फिर नीचे यहाँ तक लिखा है; सम्यग्दर्शन के बिना मन्दकषाय को भी वास्तव में शुभोपयोग नहीं कहा जा सकता। नीचे है। वास्तव में शुभोपयोग नहीं कहा जाता। भगवान आत्मा, भगवान आत्मा अपना शुद्धभाव, जब तक उसके भण्डार की चाबी नहीं खोले, तब तक उसके इस शुभभाव के, इस शुभराग की क्रिया को