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गाथा - २८
है - ऐसा जो भगवान पूर्णानन्द का नाथ प्रभु, वह तीन लोक का पूज्य स्वयं आत्मा अपने को पूज्य है। समझ में आया ? आहा... हा...! ऐसा आत्मा ! उसे ऐसा लगता है कि) ऐसा आत्मा ? ऐसा आत्मा ? भाई ! आत्मा ऐसा है। नव तत्त्व या सात तत्त्व में आत्मा ऐसा है। समझ में आया ?
निश्चयनय ऐसा ही कहता है.... एहउ णिभंतु जाणि फिर भाषा देखी ? निर्भ्रान्त - निःसन्देह.... सन्देह मत कर। यह कौन ? हम भी ऐसे आत्मा ? तीन लोक का भक्त पूज्य ऐसा आत्मा ? भक्त तो भगवान को पूजे ? अपने आत्मा को ? इतना बड़ा यह तत्त्व ! भ्रान्ति न कर । समझ में आया ? आहा... हा... ! सार... सार... सार... सार... मक्खन रखा है ! उसे पूजते हैं, उसे ध्याते हैं, उसे मानते हैं । सौ इन्द्रों में भी यह प्रसिद्ध है कि आत्मा ही पूज्य है - ऐसा कहते हैं। समझ में आया? तब फिर वह व्यवहार आया इसलिए वह...... तुम्हारा व्यवहार खोटा.... फिर वापस ऐसा कहते हैं। वह व्यवहाररूप व्यवहार है । व्यवहार नहीं – ऐसा नहीं परन्तु व्यवहार को निश्चय से पूज्यपना स्वीकार कर दे तो यह बात मिथ्या है। बीच में ऐसा व्यवहार (आता है) भगवान को वन्दन, पूजा, नामस्मरण, पूजा - भक्ति, यह शुभराग होता है, व्यवहार होता है परन्तु जानने योग्य है; पूजने योग्य वास्तव में तो आत्मा है । आहा... हा...! समझ में आया ? तब कहते हैं लो ! बातें तो ऐसी करते हैं। ऐसा कितने ही कहते हैं ।
कानजीस्वामी बात तो बहुत ऊँची करते हैं परन्तु फिर ऐसे मकान, मन्दिर और हाथी और यह सब कराते हैं, शोभायात्रा.... अरे ! सुन तो सही, भाई ! यह तो अजीव की पर्याय के काल में अजीव होता है । भक्तिवन्त का भाव शुभ होता है, उस काल में, वह जाननेयोग्य है । वास्तव में व्यवहार से आदरणीय कहा जाता है; निश्चय से आदर करने योग्य नहीं है । व्यवहार से तो आदर करने योग्य कहें न ? भगवान के पैर पड़े, हे प्रभु! नाथ! हे देव! पूज्य हैं न! ऐसा कहते हैं । हे नाथ प्रभु ! तीन लोक के नाथ वे व्यवहार से पूज्य हैं, जाननेयोग्य हैं, उसे निकाल दे तो वीतराग हो जाये और या मिथ्यादृष्टि हो जाये । समझ में आया ? रतनलालजी ! 'रंग लाग्यौ महावीर थारो रंग लाग्यौ' लोगों को कितना रस चढ़ जाता है, लो ! ए... बाबूभाई ! दो हाथ पकड़ कर ऐसे चारों ओर फिरते होते हैं ।