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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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परमेश्वर और उनकी मूर्ति को देखने से सम्यग्दर्शन नहीं होता, व्यवहार का कथन आता है, हाँ! कि उससे होता है। वह तो यहाँ से हो, तब बाह्य में समीप में निमित्त कौन (था)? उसका ज्ञान कराया। आहा...हा...! समझ में आया?
तीन लोक के प्राणियों को ध्यान करने योग्य जिन है, वह आत्मा है। भगवान परिपूर्ण स्वभाव से भरपूर जिन, स्वयं परिपूर्ण परमात्मा है, वही भक्तजनों को – आत्मा की भक्ति करनेवाले जीवों को आत्मा का ध्यान करने योग्य है। उनका तीन लोक का नाथ आत्मा ही उन्हें पूज्य है। भगवान तीर्थंकर आदि पूज्य है, वे व्यवहार से हैं । आहा...हा...! समझ में आया? बहुत संक्षिप्त श्लोक ! स्वयं कहते हैं कि मेरे लिए बनाये हैं, अन्त में ऐसा भी अन्दर लिखा है। है न?
सो अप्पा णिरु वुत्तु - वह यह आत्मा ही निश्चय से कहलाता है.... अर्थात् क्या कहते हैं ? जिसे वास्तव में आत्मा कहा, वह जिन है, पूज्य है – ऐसा कहते हैं । जिसे वास्तव में निश्चय से वास्तविक आत्मा कहा, ऐसा। अकेला शुद्ध, बुद्ध, ज्ञानधन, आनन्दकन्द अकेला वर्तमान भले हो, त्रिकाल लम्बावे उसका कुछ नहीं। समझ में आया? वर्तमान अकेला शुद्ध-बुद्ध घन अकेला अखण्डानन्द ध्रुव, उसे निश्चय से आत्मा कहा है। समझ में आया? सो अप्पा णिरु 'णिरु' अर्थात् निश्चय से । वुत्तु निश्चय से तो उसे आत्मा कहा है। देह की क्रिया, वाणी की क्रिया तो जड़ है; पुण्य-पाप के परिणाम आस्रव; वर्तमान पर्याय की अल्पता, वह व्यवहार है। वास्तविक आत्मा तो त्रिकाली बुद्ध चिद्घन ध्रुव है; अकेला सदृश चैतन्य का ध्रुव पिण्ड, वह वास्तविक आत्मा है। आहा...हा...! समझ में आया?
‘णिच्छयणइ एमइ भणिउ' निश्चयनय ऐसा ही कहता है। देखो! देखो!! एमइ भणिउ है न? सत्य बात कहनेवाली वाणी और ज्ञान ऐसा कहते हैं । तीन लोक का नाथ पूज्य प्रभु तो तू है। आहा...हा...! भगवान सर्वज्ञदेव और प्रतिमा, वह व्यवहार से पूज्य; यह तेरी पर्याय – एक समय का उघाड़, वह बहुमान देने योग्य व्यवहार से है। मोक्ष का मार्ग पूज्य है, वह भी व्यवहार से है - यहाँ तो ऐसा कहते हैं। पूर्ण शुद्ध भगवान चैतन्य का पिण्ड जहाँ नमने जैसा है, जहाँ झुकने जैसा है, जहाँ अन्तर सन्मुख होने जैसा