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गाथा - २७
दिव्यध्वनि, वह जैनशासन नहीं । आहा... हा... ! विकल्प उत्पन्न होता है, वह जैनशासन नहीं, पंच महाव्रत का परिणाम उत्पन्न होता है, वह जैनशासन नहीं । आहा....हा... ! दूसरों को समझाने में रुकना, (उसका) विकल्प, वह जैनशासन नहीं । निहालभाई ! कठिन मार्ग ऐसा.... भाई ! आहा... हा...! जहाँ अकेला स्थिर शान्त वीतरागी रसका तत्त्व आत्मा, उसमें ऐसे विकल्प को अवकाश कहाँ ? और होवे तो वह शिवपंथ के कारण में कैसे शामिल है ? शिवपंथ के गमन में पंथ के गमन में तो शुद्ध भगवान आत्मा के ओर की अनुभव की दृष्टि, अनुभव ज्ञान, अनुभव की स्थिरता एक ही सिवगमणु - यह मोक्ष के पंथ का गमन और परिणमन है।
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यह देखो न, छोटा ग्रन्थ है, लो ! १०८ श्लोक, हैं । वे पूज्यपादस्वामी, लो न, इक्यावन श्लोक... क्या कहा यह ? इष्टोपदेश । आहा... हा... ! दिगम्बर सन्त, उनकी वाणी, सम्पूर्ण मोक्षमार्ग को खोल देती है। वीतरागी मुनि थे, वीतरागी मुनि... समझ में आया ? भले नग्न शरीरादि था, उस वाणी और नग्न शरीर में हम नहीं हैं। वाणी और नग्न शरीर और विकल्प में हम नहीं हैं; हम जहाँ हैं, वहाँ वे नहीं हैं। समझ में आया ?
ऐसा भगवान आत्मा... उसे कहते हैं कि जब तक निर्मलस्वभाव की, स्वभाव की एकाग्रता न करे और बाहर में विकल्प की जाल में घूमा करे, तब तक सिवगमणु ण लब्भइ। जहाँ तुझे भाव हो वहाँ जा । इस स्वभाव में मुक्ति चाहिए हो तो स्वभाव की ओर की एकता कर, वरना विकल्प में गया है और उससे लाभ मानता है, यह तो अनादि का पड़ा है। यह तू करता है, उसमें हमारे कहना क्या ? जहिं भावहु तहि जाउ ओ...हो...हो... ! जहाँ चाहे वहाँ तू जा । मोक्ष का लाभ चाहता हो तो इस स्वभाव की ओर एकाग्र हो । समझ में आया? यह सब प्रपञ्च के विकल्प की जाल छोड़ दे। भगवान आत्मा निर्विकल्प स्वरूप (विराजमान है, उसका ) ध्यान कर, बस ! एक ही उपाय है, आहा... हा... ! कहो, समझ में आया ?
वह बाहर मीठा कैसा लगता है ? भले हमारे एक-दो भव बढ़ें.... समझे न ! वह तो दो-तीन भव कहता था । यह तो ऐसा सुना कि भई ! एकाध भव करना पड़े परन्तु जगत का कल्याण हो जाये तो भले आत्मा को एक दो भव हों, कोई बाधा नहीं। एक भव की भावना,