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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) १९७ भव मिले, उस कारण से सम्यक्त्व नहीं मिलता। कहो, समझ में आया ? नौवें ग्रैवेयक गया, अट्ठाईस मूलगुण (ऐसे पालन किये कि) चमड़ी उतारकर नमक छिड़क दे तो क्रोध न करे - ऐसी तो जिसकी क्रिया हो, तब नौवें ग्रैवेयक तक जाये.... ऐसा करने पर भी सम्यक्त्व नहीं पाया तो इसका अर्थ वह दूसरी चीज है । इसके द्वारा, इस भाव और इससे वह प्राप्त हो - ऐसी चीज नहीं है, यह कहते हैं। योगसार का वर्णन है न! वह सार नहीं, योग नहीं, वहाँ जुड़ान किया, वह नहीं । आहा... हा... ! समझ में आया ? बादशाही छोड़ी, जंगल में अनन्त बार रहा.... परन्तु क्या हुआ ? अन्दर में चैतन्य बादशाह को पहचाना नहीं! ऐसी क्रिया करूँगा तो अपना कल्याण होगा? ऐसा त्याग किया और शरीर से ब्रह्मचर्य पालन किया (तो) कल्याण होगा ( - ऐसा मानकर ) मर गया, उसी-उसी में, कहते हैं । आहा... हा...! देखो, यह योगीन्द्रदेव दिगम्बर मुनि, योगीन्द्रदेव दिगम्बर मुनि जंगलवासी इस जगत के समक्ष यह बात रखते हैं। योगसार आत्मा के स्वभाव का आश्रय करके जो सम्यक्त्व का निर्मल योग प्रगट होता है, वह तूने अनन्त काल प्रगट नहीं किया। समझ में आया ? धर्मध्यान के 'काउसग्ग' में पाठ आता है । उन लोगों में - स्थानकवासियों में नहीं आता ? एक सम्यक्त्व के बिना ऐसा अनन्त बार कर चुका, अमुक किया.... आता है या नहीं ? ए... भगवानभाई ! इसे सम्यक्त्व कब था ? भान नहीं है। अभी सम्प्रदाय की विधि का पता नहीं है, देव - शास्त्र - गुरु कैसे होते हैं ? इसका पता नहीं है। किसकी दीक्षा और किसका साधु ? समझ में आया ? नौवें ग्रैवेयक में इस प्रकार गया तो भी मिथ्यात्व का अभाव नहीं हुआ। क्योंकि वह परभाव है, यहाँ तो साधारण अभी कोई दया, दान के साधारण परिणाम करे तो इसे धर्म हो गया ? आहा...हा...! चउरासीलक्खह फिरिउ काल अणाइ अणंतु । पव सम्मत ण लद्धु जिउ एहउ जाणि णिभंतु ॥ २५ ॥ ऐसा निर्भ्रान्त जान । निर्णय कर कि अनन्त भव में अनन्त भाव किये परन्तु उस भाव द्वारा सम्यक्त्व नहीं पाया । सम्यक्त्व को अन्दर भगवान आत्मा अखण्डानन्द प्रभु का आश्रय करने से सम्यक्त्व होता है, दूसरे किसी का आश्रय करने से प्राप्त नहीं होता । समझ में आया ? आहा...हा... ! उसे भी कहते हैं कि इसे पर की महिमा लगी है और स्व की
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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