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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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हो? अरे ! छोड़ न, यह कब तेरे स्वरूप में था? भगवान सच्चिदानन्द प्रभु, पूर्णानन्द का नाथ परमेश्वर को पर्याय में विकल्प की आड़ में भगवान पड़ा है। पूरा परमेश्वर, तूने छुपा दिया है। विकल्प की आड़ में छुपा दिया है। निर्विकल्प नाथ भगवान, निर्विकल्प अभेद स्वरूप है, वह निर्विकल्प दशा से ही प्राप्त हो – ऐसा है। समझ में आया? आहा...हा...!
जो परमात्मा है वही मैं हूँ इउ जाणेविणु ऐसा जानकर.... अण्णु वियप्प म करहु – ऐसा करके (कहते हैं), दूसरा व्यवहार, शास्त्र के पठन का विकल्प, पंच महाव्रत के विकल्प, नवतत्त्व के भेद के विकल्प, महाव्रत के विकल्प, नव तत्त्व के भेद के विकल्प ये सब अब मत कर, मत कर; करने योग्य तो यह है।
मुमुक्षु - स्वयं महाव्रत करते हैं और महाव्रत के विकल्प छोड़ – ऐसा कहते हैं। उत्तर – छोड़... छोड़... छोड़.... ऐसा कहते हैं। देखो, यह स्वयं कहते हैं। मुमुक्षु - स्वयं कहते हैं?
उत्तर – यह क्या कहते हैं ? छोड़। छोड़ने योग्य है, उसे छोड़; आदर करने योग्य है, वहाँ स्थिर हो, आहा...हा...! अपनी अन्दर वस्तु ऐसी अनन्त आनन्द और अनन्त गुण से भरपूर पूरा तत्त्व, अकेला स्वयं परमात्मा का पिण्ड है । परमस्वरूप का पिण्ड भगवान आत्मा है, उसका आश्रय ले। यही मैं । विकल्प छोड़ दे। शास्त्र के पठन के विकल्प छोड़ दे, दूसरे को समझाऊँ तो मुझे लाभ होगा, यह तो उसकी मान्यता में होता ही नहीं परन्तु दूसरे को समझने का विकल्प भी मुझे लाभदायक नहीं है। आहा...हा...! ए... रतनलालजी! यह वीतरागमार्ग! आहा...हा...! लाखों लोग समझ जायें... आहा...हा...! परन्तु तुझे क्या है? तू कहाँ वहाँ विकल्प और वाणी में है ? जहाँ तू है, वहाँ विकल्प और वाणी नहीं है। वे तो परमात्मस्वरूप चिदानन्द अखण्ड ज्ञातादृष्टा है। वहाँ वह विकल्प नहीं, वाणी नहीं। अब तुझे वहाँ से लाभ लेना है ? समझ में आया? विकल्प और वाणी है, वहाँ अजीवतत्त्व और बन्धतत्त्व है। बन्धतत्त्व में अबन्ध भगवान विराजता है ?
अबन्धस्वरूपी प्रभु मोक्षस्वरूपी आत्मा... वस्तु अर्थात् अबन्धस्वरूप। वस्तु अर्थात् मोक्षस्वरूप। वस्तु अर्थात् पूर्ण आनन्द की प्रगट... प्रगट शक्तिरूप पूरा तत्त्व – ऐसे परमात्मा, वह मैं और मैं, वह परमात्मा – ऐसा जानकर, हे आत्मा ! दूसरे विकल्प छोड़,