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गाथा-२२
शास्त्र की कल्पना (-चर्चा) करते हैं। छोड़, यह कल्पना छूटकर स्थिर होने से केवलज्ञान है। आहा...हा...! समझ में आया?
यह तो वीरों का मार्ग है, भाई! आहा...हा...! ........ यह आचार्य का टुकड़ा पहले खूब लेते, यह सब तुमने लिखा था (संवत्) १९८२ की साल में, पता है? बढ़वान... वीरवाणी... वीरवाणी... आती थी न? वीरवाणी? (संवत्) १९८२ के साल में चातुर्मास था। १९८२ में यह सब टुकड़े लिखते.... भगवान फरमाते हैं कि अरे... आत्मा! तेरा मार्ग तो अफरगामी का मार्ग, भाई! जिस रस्ते चढा, वहाँ से नहीं फिरे – ऐसा तेरा मार्ग है। आचार्य का टुकड़ा है। ...... मैं.... परन्तु महापुरुषार्थ से आचरण में आवे ऐसा तेरा मार्ग है। यह कोई रेंगी-फेंगी नपुंसक, हिजड़ों का मार्ग नहीं है। जिस मार्ग में तू चढ़ा, वह अफरमार्ग है। निज अव्यक्तगामी-वापिस न फिरे ऐसा तेरा रास्ता है, केवलज्ञान लेकर ही रहेगा – ऐसा तेरा मार्ग है। एई... वीरवाणी में लिखते, फिर बाद में छपाते। (संवत्) १९८२-८३ में उस दिन ऐसा कहते, हाँ! उस दिन परन्तु... सभा हो, यह क्या कहते हैं परन्तु ? आचारांग का टुकड़ा है। णमो लोए सव्वसाहूणं ऐसा टुकड़ा २५-५० ऐसे हैं । णमो लोए सव्वसाहूणं – भगवान कहते हैं, हे वीर! दुनिया के मार्ग के साथ मेरे वीतरागमार्ग को मत मिलाना, प्ररूपणा मत करना। दुनिया क्या मानती है ? अमुक क्या मानते हैं ? बड़े पण्डित क्या मानते हैं ? अब छोड़ न, यह सब होली करते हैं। णमो लोए सव्वसाहूणं - हमारा वीतराग का मार्ग पूर्णानन्द के पन्थ में बहे हुए लोक के साथ इस मार्ग को नहीं मिलाते, लोक के साथ कहीं मेल खाये नहीं, बिल्कुल मेल नहीं खायेगा। लोग तो मूढ़ हैं। बहत लोग हों तो क्या हो गया? समझ में आया?
भगवान आत्मा मैं पूर्णानन्द का नाथ शुद्ध चैतन्य महा परमात्मा के अन्तरस्वरूप से भरपूर, यह परमात्मा ही मैं हूँ। अरे! जो हउं सो परमप्पु तथा जो मैं हूँ, वही परमात्मा है.... लो ! जो परमात्मा है, वही मैं हूँ तथा जो मैं हूँ, वही परमात्मा है.... अरस-परस ले लिया। मैं, वह परमात्मा और परमात्मा, वह मैं । यह इस स्वीकार किस पुरुषार्थ से आता है? मोहनभाई! आहा...हा...! भाईसाहब! हमें बीड़ी बिना नहीं चलता, तम्बाकू बिना नहीं चलता, एक जरा इज्जत थोड़ी ठीक न पड़े तो झटका खा जाये, उसे तुम परमात्मा कहते