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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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के आश्रय होकर जानता है । समझ में आया ? रागादिक भाव आवें उनका यह कर्ता नहीं । जिनेन्द्र कहाँ राग के कर्ता हैं ? उन्हें है नहीं और कर्ता नहीं तथा यहाँ है परन्तु वह इसके स्वरूप में नहीं। कोई कहता है कि वीतराग को तो राग नहीं है, इसलिए कर्ता नहीं है परन्तु यहाँ भी तू वीतरागस्वरूप है, वह राग का कर्ता है ही नहीं। समझ में आया ? अद्भुत बात भाई ! गड़बड़ होती है, चारों ओर बेचारे जाने कहाँ धर्म और कहाँ मोक्ष मिलेगा ? धर्म और मोक्ष की खान तो तू आत्मा है। कहीं से लटके ऐसा नहीं, ऊपर से पटके - ऐसा नहीं ऐसे जिनेन्द्र भगवानस्वरूप आत्मा है।
शुद्धात्मा में और जिनेन्द्र में कुछ भी भेद मत समझो.... भिन्न मत कर, भिन्न मत हो; ये जुदा हुए, वे एक नहीं होते । आहा... हा... ! कोई कहे न, अलग पड़े उनके मन अलग, ‘अन्न अलग उनके मन अलग' लोग यह कुछ कहते हैं न ? सगे पिता और पुत्र अलग पड़े तो अन्न अलग, मन अलग हो गया। भाई ! हमने रोटियों के लिए तेरी बहू को और तेरी माँ को बनता नहीं, इसलिए अलग होते हैं, लो ! परन्तु पड़े पीछे अन्दर कुछ फेरफार हुए बिना नहीं रहता । रतिभाई ! होता है या नहीं ऐसा ? वह बहू आयी हो बेचारी कुछ छूट से खर्च करने के लिए, भाई ! अपने पास दो-पाँच लाख है तो दो-पाँच-छह हजार खर्च कर सकते हैं। वह (सास) होवे कंजूस, वह खर्च नहीं करे। अपने ऐसा नहीं होता, खर्च नहीं करते । ऐ... ई ... ! तब हम अलग हो जाते हैं। इससे पहले मन में जरा ठीक हो वे अलग पड़ने के बाद मन में मिलाप नहीं रहता, हैं ? इसी प्रकार सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा की दशा, उससे यहाँ अलग पड़े, राग का कर्ता हो तो अलग हो तो आत्मा नहीं रहे वह । समझ में आता है न ? जिसके अन्न अलग, उसका मन अलग हो गया। परमात्मा सर्वज्ञदेव त्रिलोकनाथ परमेश्वरस्वरूप मैं आत्मा हूँ, उसकी जिसे अन्तर में प्रतीति (हुई), उसने रागवाला और निमित्तवाला आत्मा नहीं जाना, नहीं माना। ऐसा मानने से उससे अलग नहीं पड़ा, परमात्मा से अलग नहीं पड़ा और (अलग) पड़ा तो राग मेरा, निमित्त मेरा यह परमात्मा से अलग पड़ा, वह अलग में जाएगा, भटकेगा। समझ में आया ? आहा... हा...!
मुमुक्षु - पूरा बाहर में ही मशगुल हो गया है ।