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________________ १५४ गाथा-२० अस्सी हजार का तो हीरा हो इतना रत्ती भर और एक रत्ती का दस हजार रुपया.... आता है न इतना हीरा अस्सी हजार का? लाख-लाख, दो-दो लाख, पाँच-पाँच लाख का हीरा उसे सम्हाले, उसे डिब्बी में ऐसा रखूगा, उसका ऐसा करना, उसका ऐसा करना, आहा...हा...! उसकी उसे कीमत हुई है, इसलिए उसे सम्हालने में बारम्बार झुकाव (होता है)। भगवान आत्मा शुद्धात्मा, हे योगी ! 'किमपि भेउ म वियाणि' अपने शुद्धात्मा में और जिनेन्द्र में कुछ भी भेद मत समझो। आहा...हा...! अन्तर झुकाव में जहाँ वीतरागी चैतन्य की कीमत हुई है, उस राग के भाव से वीतरागस्वरूप भगवान आत्मा को जहाँ भिन्न जाना है, कहते हैं कि ऐसे आत्मा को और परमात्मा में जरा भी भेद मत मान, हाँ! आहा...हा...! सर्वज्ञ परमात्मा वीतराग देव अपने ज्ञान से सब जानते हैं । सब भिन्न है – ऐसा जानते हैं। मैं यह और यह, ऐसा भिन्न है, वैसा जानते हैं। उनमें और तुझमें कुछ अन्तर नहीं है। तू भी एक जाननहार ज्ञानस्वरूप से अल्पज्ञ और सर्वज्ञ को लक्ष्य में लेकर – अल्पज्ञ पर्याय द्वारा सर्वज्ञ पद को लक्ष्य में लेकर यह सर्वज्ञ से अधिक जानते हैं तू अल्पज्ञ पर्याय (द्वारा) सर्वज्ञ अपनी पर्याय के लक्ष्य में लेकर यह जानने का काम करे, उसमें सर्वज्ञ और परमात्मा में कुछ भेद नहीं है। समझ में आया? मुमुक्षु - महापुरुष की दृष्टि तो बहुत विशाल और उदार होती है। उत्तर – उदार होती नहीं, वस्तु का स्वरूप ऐसा होता है। वस्तुस्वभाव ऐसा है। यहाँ यह कहना है । देखो! यहाँ तो ऐसा कहा है।सुद्धप्पा अरु जिणवरहं भेउ म किमपि वियाणि। भेद मत जान। यह अलग मत जान और अलग मत कर। आहा...हा...! सम्यग्ज्ञानदीपिका में कहते हैं, एक क्षण भी शुद्ध परमात्मा से अलग माने, वह मिथ्यादृष्टि संसारी है। किस अपेक्षा से? एक क्षण भी सिद्ध भगवान परमात्मा से मैं अलग हँ - ऐसा जाननेवाला, उसमें राग और विकल्प की एकता मानी है, राग का कर्ता होकर, पर का कर्ता होकर रुका है, वह सर्वज्ञ के पद से यहाँ अलग पड़ा है। समझ में आया? परमात्मा का वीतराग पद, उसमें से क्षणभर भी अलग रहा (तो) मूढ़ मिथ्यादृष्टि संसारी निगोदवासी है। क्यों? कि, वह सर्वज्ञ परमेश्वर जिनेन्द्र भी जानते... जानते.. जानते... हैं। भले पूर्ण पर्याय द्वारा जानते हैं और तू अल्पज्ञ भी सर्वज्ञ पूर्ण... पूर्ण स्वभाव
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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