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जिनवर अरु शुद्धातम में, भेद न किञ्चित् जान । मोक्षार्थ हे योगिजन ! निश्चय से तू यह मान ॥
गाथा - २०
अन्वयार्थ – ( जोईया) हे योगी! (सुद्धप्पा अरु जिणवरहं किमपि भेउ म वियाणी) अपने शुद्धात्मा में और जिनेन्द्र में कोई भी भेद मत समझो। (मोक्खह कारण णिच्छइ एउ वियाणी) मोक्ष का साधन निश्चयनय से यही मानो ।
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अपनी आत्मा में व जिनेन्द्र में भेद नहीं। देखो ! लो ! यह सब सार-सार श्लोक रखे हैं न। अपने आत्मा में (अर्थात्) वस्तु आत्मा, हाँ ! एक समय की दशा में विकार और अल्पज्ञता है, वह कहीं आत्मा का पूर्णरूप नहीं, असली आत्मा वह नहीं । समझ में आया ? एक समय की अल्पज्ञदशा, वर्तमान पर्याय और राग, वह कोई आत्मा का असली स्वरूप नहीं है; वह तो विकृत और अपूर्णरूप है। विकृत - पुण्य-पाप का विकार, वह विकृत है और अल्पज्ञ आदि, वह उसका अपूर्णरूप है । क्या कहा ?
भगवान आत्मा के एक समय में तीन प्रकार हैं। बाहर की बात एक ओर रहो... शरीर और कर्म उसमें है नहीं, वह तो एक अलग बात रह गयी। उसमें पुण्य और पाप का विकार है या भ्रान्ति है, या यह मुझे ठीक है, वह तो विपरीतभाव है, विपरीतभाव है; वह कहीं आत्मा का रूप नहीं है और उसे जाननेवाली वर्तमान प्रगट अल्पज्ञता, अल्पदर्शिता, वीर्यता - जो प्रगट क्षयोपशमरूप वीर्य है, वह तो अल्पता है, अल्प है, अंश है; वह कहीं परिपूर्णरूप नहीं है; इसलिए वह अंश और उसका यह विकृतरूप और अल्पज्ञता को पूरा आत्मा मानने से, उसे ही आत्मा का पूरा (स्वरूप) मानकर उसमें भटक रहा है। समझ में आया? इसलिए उसका अल्पज्ञता का रूप और विकृति का रूप – दोनों की रुचि छोड़कर इसका सर्वज्ञ का रूप और निर्दोष वीतरागी स्वरूप उसका है। समझ में आया ?
जब एक समय की पर्याय में अल्पज्ञता है, तब स्वयं सर्वज्ञ है; पर्याय में जब रागादि भाव है तो स्वयं वीतराग का बिम्ब है। समझ में आया ?
यह कहते हैं कि अपने आत्मा में... ऐसा आत्मा और जिनेन्द्र में भेद नहीं है.....