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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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है। नर का नारायण हो जाता है, आत्मा का परमात्मा हो जाता है। आहा...हा...! समझ में आया?
मुमुक्षु - डंक मारता है।
उत्तर - डंक झेलने जैसा है। पत्थर में कोई डंक लागे? ऐसे अन्दर से धुन चढ़ती है। एकदम ईयल का भव समाप्त, भँवर का भव हो जाता है। इसी प्रकार भगवान आत्मा वस्तुपने, वस्तुरूप से वीतरागस्वरूप अकेला परिपूर्ण एक आत्मा भगवान परिपूर्ण है। यह फिर कोई बात है विश्वास की ! यह विश्वास कौन करे? समझ में आया?
मेरा परमपद निजानन्द परिपूर्ण भगवानस्वरूप विराजमान त्रिकाल मेरा स्वरूप है। ऐसी जिसे अन्तररुचि में, अन्तर ज्ञान होकर विश्वास आया, कहते हैं – उसकी जहाँ लगन लगी, जाओ! परमात्मा मुक्तदशा सादि अनन्त सिद्ध (हो गया)। अन्दर भँवरे का चटका लगा। मैं परमात्मा समान हूँ, परमात्मा समान हूँ, परमात्मा मैं हूँ; समान भी नहीं - ऐसा ध्यान करते... करते... करते स्वयं परमात्मा हो जाता है। मैं रागी हूँ और राग का कर्ता हूँ और देह की क्रिया का कर्ता हूँ, वह मूढ़ है। समझ में आया?
मुमुक्षु - वह तो व्यवहार से कर्ता है।
उत्तर - धूल भी कर्ता नहीं। कर्ता किस दिन था? कर्ता होवे तो तन्मय हो जाये; राग का कर्ता और पर का कर्ता होवे तो तन्मय अर्थात् तद्रूप आत्मा हो जाये (परन्तु) उसरूप हुआ नहीं। समझ में आया? इसलिए तो यहाँ कहते हैं - जिनेन्द्र का स्मरण परमपद का कारण है। भगवान आत्मा वीतरागस्वभाव, वह परमपद का कारण है। लो, एक गाथा यह हुई। फिर तो इन्होंने इसमें लम्बा बहुत लिखा है। अब बीस -
अपनी आत्मा में व जिनेन्द्र में भेद नहीं सुद्धप्पा अरु जिणवरहं भेउ म किमपि वियाणि। मोक्खह कारण जोईया णिच्छइ एउ वियाणी॥२०॥