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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) १२१ अकेली निश्चय की बातें, व्यवहार की तो उड़ा दी। सुन न अब ! तुझे व्यवहार का पता नहीं है, निश्चय का पता नहीं है, तू किसकी बातें करने लगा? ___ यहाँ कहते हैं भगवान आत्मा में जिसे आत्मदर्शन हुआ, सम्यक्त्व हुआ, उसे यह तीर्थंकरपने के बंध का विकल्प आया, प्रकृति बँधी, भगवान ने कहा तू तीर्थंकर होगा... आहा...हा...! यह तीर्थंकर होऊँगा, इस सम्बन्धी का ज्ञान, केवलज्ञान को प्राप्त करायेगा - ऐसा नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया? आहा...हा...! यहाँ तो कहते हैं कि व्यवहार दृष्टि से वह जाननेयोग्य है । समझ में आया? आहा...हा...! मुमुक्षु – उस ज्ञान की महिमा नहीं। उत्तर – उसकी महिमा नहीं। अप्पा मुणहु जिय पावहु परमेट्टि ऐसा है न? भगवान, उसके धारावाही ज्ञान से केवलज्ञान, सिद्धपद को पायेगा। प्रकृति से नहीं, विकल्प से नहीं, उसके ज्ञान से नहीं; उसके ज्ञान में निश्चित आ गया है कि भगवान ने कहा है, इसलिए मैं तीर्थंकर होनेवाला हूँ – ऐसा ज्ञान में आ गया होने पर भी वह ज्ञान आश्रय करने योग्य नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया? अद्भुत, भाई! योगीन्द्रदेव... योग जोड़ वहाँ । यहाँ योग कहाँ (जोड़ता है)? आहा...हा...! समझ में आया या नहीं? ए...ई... रतिभाई! णिच्छइणइ अप्पा मुणहु जिय पावहु परमेट्ठि लो! वे कहिया ववहारेण वि दिट्टि यह तो मात्र कहिया इतने में ले लिया, बस! कहिया का अर्थ यह जान, इतना। वचन कहा, परन्तु वह जान, इतना। णिच्छइणइ अप्पा मुणहु भगवान आत्मा एक समय में एकाकार प्रभु को जानने से तू निश्चित केवलज्ञान को पायेगा, तू निश्चित सिद्धपद को पायेगा। तीन काल में यह बात बदले - ऐसी नहीं है। आहा...हा... ! हैं ? मुमुक्षु – बिना टीका के भी स्पष्टता बहुत आती है। उत्तर – टीका है न इसमें शब्दार्थ है । शब्दार्थ थोड़ा है परन्तु वह अन्दर है न? पाठ बोलता है या नहीं? मुमुक्षु - ज्ञान बोलता है या नहीं, यह निश्चित करो न, पाठ में चाहे जो हो।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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