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(२२) यदि एक प्राणी को दूसरे के दुःख-सुख और जीवन-मरण का कर्ता माना जाय तो फिर स्वयंकृत शुभाशुभ कर्म निष्फल साबित होंगे; क्योंकि प्रश्न यह है कि हम बुरे कर्म करें और कोई दूसरा व्यक्ति, चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, क्या वह हमें सुखी कर सकता है? इसीप्रकार हम अच्छे कार्य करें और कोई व्यक्ति, चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो, क्या हमारा बुरा कर सकता है?
यदि हाँ, तो फिर अच्छे कार्य करना और बुरे कार्यों से डरना व्यर्थ है; क्योंकि उनके फल को भोगना तो आवश्यक है नहीं?
और यदि यह सही है कि हमें अपने अच्छे बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा तो फिर पर के हस्तक्षेप की कल्पना निरर्थक है। इसी बात को अमितगति आचार्य ने इसप्रकार व्यक्त किया है -
(द्रुतविलंबित) स्वयं कृतः कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते-शुभाशुभं। परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा।। निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न कोपि कस्यापि ददातिकिंचन। विचारयन्नेवमनन्य मानसः, परो ददातीति विमुच्य शेमुषीं।।'
(वीर) स्वयं किये जो कम शुभाशुभ, फल निश्चय ही वे देते। करे आप फल देय अन्य तो, स्वयं किये निष्फल होते।। अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी। ‘पर देता है यह विचार तज,स्थिर हो छोड़ प्रमादी बुद्धि।।
अतः सिद्ध है कि किसी भी द्रव्य में पर का हस्तक्षेप नहीं १. भावना द्वात्रिंशतिका ( सामायिक पाठ ), छंद ३०-३१