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जीत लेने से वे सच्चे महावीर बने। पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ होने से वे भगवान कहलाए । उसी समय तीर्थंकर नामक महापुण्योदय से उन्हें तीर्थंकर पदवी प्राप्त हुई और वे तीर्थंकर भगवान महावीर के रूप में विश्रुत हुए।
उसके बाद उनका तत्त्वोपदेश होने लगा। उनकी धर्मसभा को 'समवशरण' कहा जाता है । उसमें प्रत्येक प्राणी को जाने का अधिकार प्राप्त था। छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं था । जाति-पांति को कोई स्थान प्राप्त न था । भगवान महावीर ने जातिगत श्रेष्ठता को कभी महत्व नहीं दिया । उनके अनुसार श्रेष्ठत्व का मापदण्ड | मानव के आचार और विचार हैं।
आचार शुद्धि के लिए अहिंसा और विचार शुद्धि के लिए अनेकान्तात्मक दृष्टिकोण आवश्यक हैं। जिसका आचार अहिंसक है, जिसने विचार में वस्तु-तत्त्व को स्पर्श किया है तथा जो अपने में उतर चुका है; चाहे वह चांडाल ही क्यों न हो, वह मानव ही नहीं, देव से भी बढ़कर है। कहा भी है
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(अनुष्टुप्)
सम्यग्दर्शन सम्पन्नमपि मातंग देहजम् । देवादेवं विदुर्भस्म, गूढ़ांगारान्तरौजसम् ।।'
जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन से सम्पन्न है; वह व्यक्ति भले ही मांतग जैसे हीनकुल में पैदा हुआ हो; फिर भस्म की भीतर छुपी हुई अग्नि के समान देवों का भी देव है ।
उनकी धर्मसभा में राजा-रंक, गरीब-अमीर, गोरे-काले सब मानव एक साथ बैठकर धर्म श्रवण करते थे । यहाँ तक कि उसमें
१. आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक २८