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मैं कौन हूँ? घटित करके ही देखेंगे तो फिर हममें और पशुओं में क्या अन्तर रह जायेगा ? इसलिए हमें उन महापुरुषों के जीवन से भी कुछ सीख लेना चाहिए कि जिन्होंने चक्रवर्ती की संपदा प्राप्त करके भी सच्चा सुख प्राप्त करने के लिए उसे तृणवत् त्याग दिया था। भारतीय पुराण साहित्य इसप्रकार के अनेक उदाहरणों से भरे पड़े हैं।
उक्त उदाहरणों पर गंभीरता से विचार करने पर हमें इस निर्णय पर पहुँचने में देर नहीं लगेगी कि भोग सामग्री की उपलब्धि और उसके उपभोग में वास्तविक सुख नहीं है।
'सुख क्या है ?' इस विषय पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए। 'वास्तविक सुख क्या है और वह कहाँ है ?' इसका निर्णय किये बिना इस दिशा में सच्चा पुरुषार्थ नहीं किया जा सकता और न ही सच्चा सुख प्राप्त किया जा सकता है।
कुछ मनीषी इससे आगे बढ़ते हैं और कहते हैं -
"भाई, वस्तु (भोग-सामग्री) में सुख नहीं है, सुख-दु:ख तो कल्पना में है। वे अपनी बात सिद्ध करने के लिये उदाहरण भी देते हैं कि एक आदमी का मकान दो मंजिल का है, पर उसके दाहिनी ओर पाँच मंजिला मकान है तथा बायीं ओर एक झोपड़ी है। जब वह दायीं ओर देखता है तो अपने को दुखी अनुभव करता है और जब बायीं ओर देखता है तो सुखी; अतः सुख-दुख भोग-सामग्री में न होकर कल्पना में है।"
वे मनीषी सलाह देते हैं कि “यदि सुखी होना है तो अपने से कम भोग-सामग्री वालों की ओर देखो, सुखी हो जाओगे । यदि तुम्हारी दृष्टि अपने से अधिक वैभव वालों की ओर रही तो सदा दुःख का अनुभव करोगे।"
सुख तो कल्पना में है, सुख पाना हो तो झोंपड़ी की तरफ देखो, अपने से दीन-हीन की तरफ देखो, यह कहना असंगत है; क्योंकि दुखियों
सुख क्या है ? को देखकर तो लौकिक सजन भी दयार्द्र हो जाते हैं। दुखियों को देखकर ऐसी कल्पना करके अपने को सुखी मानना कि मैं उनसे अच्छा हूँ, उनके दुःख के प्रति अकरुण भाव तो है ही, साथ ही मान कषाय की पुष्टि में संतुष्टि की स्थिति भी है। इसे सुख कभी नहीं कहा जा सकता।
सुख क्या झोंपड़ी में भरा है जो उसकी ओर देखने से आ जावेगा ? जहाँ सुख है, जबतक उसकी ओर दृष्टि नहीं जावेगी, तबतक सच्चा सुख प्राप्त नहीं होगा।
सुखी होने का यह उपाय भी सही नहीं है; क्योंकि यहाँ 'सुख क्या है ?' इसे समझने का प्रयत्न ही नहीं किया गया है, वरन् भोगजनित सुख को ही सुख मानकर सोचा गया है। ‘सुख कहाँ है?' का उत्तर कल्पना में है' दिया गया है। 'सुख कल्पना में है' का अर्थ यदि यह लिया जाय कि सुख काल्पनिक है, वास्तविक नहीं - तो क्या यह माना जाय कि सुख की वास्तविक सत्ता है ही नहीं; पर यह बात संभवत: आपको भी स्वीकृत नहीं होगी। अतः स्पष्ट है कि भोग-प्राप्ति वाला सुख जिसे इन्द्रिय-सुख कहते हैं, काल्पनिक है तथा वास्तविक सुख इससे भिन्न है। वह सच्चा सुख क्या है ? मूल प्रश्न तो यह है।। __कुछ लोग कहते हैं कि तुम यह करो, वह करो, तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी, तुम्हें इच्छित वस्तु की प्राप्ति होगी और तुम सुखी हो जाओगे।
ऐसा कहनेवाले इच्छाओं की पूर्ति को ही सुख और इच्छाओं की पूर्ति न होने को ही दुःख मानते है। ___एक तो इच्छाओं की पूर्ति संभव ही नहीं है। कारण कि अनन्त जीवों में प्रत्येक की इच्छाएँ अनन्त हैं और भोग सामग्री सीमित; तथा एक इच्छा की पूर्ति होते ही तत्काल दूसरी नई इच्छा उत्पन्न हो जाती है। इसप्रकार कभी समाप्त न होनेवाला इच्छाओं का प्रपातवत् प्रवाहक्रम चलता ही रहता है। अत: यह तो निश्चित है कि नित्य बदलती हुई नवीन