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जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में ]
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मांसाहार अनेक बीमारियों का घर है और मंहगा भी है; पर वे इस बात पर ध्यान ही नहीं देते कि वह अपवित्र है, अनैतिक है, हिंसक है एवं अनंत दुःखों का कारण है ।
इसीप्रकार कुछ लोग मांसाहार की अपवित्रता व अनैतिकता पर तो वजन देते हैं, पर उससे होने वाली लौकिक हानियों पर प्रकाश नहीं डालते ।
जनता में सभी प्रकार के लोग होते हैं। कुछ लोग तो धर्मभीरु अहिंसक वृत्ति के नैतिक लोग होते हैं, जो अपवित्र और हिंसा से उत्पन्न पदार्थों को भावना के स्तर पर ही अस्वीकार कर देते हैं। इसप्रकार के लोग उनसे होनेवाले लौकिक लाभ-हानि के गणित से प्रभावित नहीं होते। पर कुछ लोगों का दृष्टिकोण एकदम भौतिक होता है। वे हर बात को लौकिक व आर्थिक लाभ-हानि से आंकते हैं और उसी के आधार पर किसी निर्णय पर पहुँचते हैं। ऐसे लोगों को जबतक स्वास्थ्य संबंधी लाभ-हानि व आर्थिक लाभ-हानि न बताई जाये, तबतक वे किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पाते ।
जब हमें सभीप्रकार के लोगों में शाकाहार का प्रचार करना है तो संतुलित रूप से दोनों ही दृष्टियों से प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। मांसाहार में होनेवाली आर्थिक एवं स्वास्थ्य संबंधी हानि और उसके त्याग से होनेवाले लाभों का दिग्दर्शन किया जाना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक नैतिकता एवं अहिंसा के आधार पर भावनात्मक स्तर पर मांसाहार से अरुचि कराना भी है। दोनों स्तरों पर किये गये प्रचार-प्रसार से ही अपेक्षित सफलता प्राप्त होगी ।
शाकाहार और श्रावकाचार के स्वरूप, उपयोगिता और आवश्यकता पर विचार करने के उपरान्त अब उन परिस्थितियों पर विचार अपेक्षित है, जिनके कारण मांसाहार को प्रोत्साहन मिल रहा है और शाकाहार व श्रावकाचार की निरन्तर हानि हो रही है। उन उपायों