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________________ 377 - गाथा १६१-१६३ ( सवैया इकतीसा ) जौलौं अष्ट कर्मको विनास नांही सरवथा, तौलौं अंतरातमामैं धारा दोई बरनी । एक ग्यानधारा एक सुभासुभ कर्मधारा, दूहूंकी प्रकृति न्यारी न्यारी-न्यारी धरनी ॥ इतनौ विसेस जु करमधारा बंधरूप, पराधीन सकति विविध बंध करनी । ग्यानधारा मोखरूप मोखकी करनहार, दोखकी हरनहार भौ-समुद्र-तरनी ॥ जबतक अष्टकर्मों का सम्पूर्णत: नाश नहीं हो जाता, तबतक अन्तरात्माओं के दो धारायें कही गई हैं। उनमें एक तो ज्ञानधारा और दूसरी शुभाशुभ कर्मधारा है। दोनों धाराओं की सत्ता भी पृथक्-पृथक् है और प्रकृति भी जुदी-जुदी है। इनमें इतनी बात विशेष कहने योग्य है कि कर्मधारा बंधरूप है और अनेक प्रकार के कर्मबंध करनेवाली है; इसकारण आत्मशक्ति को पराधीन करनेवाली है और ज्ञानधारा मोक्षरूप है, मोक्ष को करनेवाली है, दुःखों को दूर करनेवाली है और संसार-सागर से पार उतारनेवाली है।। इस कलश में आये भावों का स्पष्टीकरण पंडित जयचंदजी छाबड़ा भावार्थ में इसप्रकार करते हैं - "जबतक यथाख्यात चारित्र नहीं होता, तबतक सम्यक्दृष्टि के दो धाराएँ रहती हैं, शुभाशुभ कर्मधारा और ज्ञानधारा। उन दोनों के एक साथ रहने में कोई भी विरोध नहीं है। (जैसे मिथ्याज्ञान और सम्यक्ज्ञान के परस्पर विरोध है, वैसे कर्म सामान्य और ज्ञान के विरोध नहीं है। ऐसी स्थिति में कर्म अपना कार्य करता है और ज्ञान अपना कार्य करता है। जितने अंश में शुभाशुभ कर्मधारा है, उतने अंश में कर्मबन्ध होता है और जितने अंश में ज्ञानधारा है, उतने अंश में कर्म का नाश होता जाता है। विषय-कषाय के विकल्प या व्रतनियम के विकल्प अथवा शुद्धस्वरूप का विचार तक भी - कर्मबन्ध का कारण है, शुद्ध परिणतिरूप ज्ञानधारा ही मोक्ष का कारण है।"
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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