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________________ समयसार अनुशीलन अब आगामी कलश में यह कहते हैं कि यद्यपि पुण्यभावरूप कर्म भी मुक्तिमार्ग का विरोधी भाव है; तथापि ज्ञानधारा और कर्मधारा का एक साथ रहने में कोई विरोध नहीं है। 376 ( शार्दूलविक्रीडित ) यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ्न सा । कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः ॥ किन्त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बंधाय तन् । मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ॥ ११० ॥ ( हरिगीत ) यह कर्मविरति जबतलक ना पूर्णता को प्राप्त हो । हाँ, तबतलक यह कर्मधारा ज्ञानधारा साथ हो ॥ अवरोध इसमें है नहीं पर कर्मधारा बंधमय । मुक्तिमारग एक ही है, ज्ञानधारा मुक्तिमय ॥ ११०॥ जबतक ज्ञान की कर्मविरति पूर्णता को प्राप्त नहीं होती; तबतक कर्म और ज्ञान का एकत्रितपना शास्त्रों में कहा है। तात्पर्य यह है कि, तबतक ज्ञानधारा और कर्मधारा के एकसाथ रहने में कोई विरोध नहीं है । किन्तु इतना विशेष है कि अवशपने जो कर्म प्रगट होता है, वह बंध का कारण है और जो स्वतः विमुक्त परमज्ञान है, वह मोक्ष का कारण है। उक्त कलश में यह कहा गया है कि, जबतक शुभाशुभ कर्म पूर्णतः समाप्त नहीं हो जाते; तबतक शुभाशुभकर्मधारा और सम्यक् श्रद्धान- ज्ञान एवं आंशिक विरतिरूप ज्ञानधारा एक आत्मा में एक साथ रहती हैं; क्योंकि उनमें सहावस्थान विरोध नहीं है, एक साथ में रहने में कोई बाधा नहीं है। हाँ, एक बात अवश्य है कि उन दोनों धाराओं के एक साथ रहने पर भी दोनों के कार्य अलग-अलग ही रहते हैं । कर्मधारा बंध करती है और ज्ञानधारा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। इस छन्द का भाव नाटक समयसार में इसप्रकार व्यक्त किया गया है
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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