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________________ समयसार गाथा १५५ १५४वीं गाथा में बड़ी दृढ़ता से यह कहा गया है कि शुभाशुभभाव मुक्ति के हेतु नहीं हैं; अत: यह जिज्ञासा जागृत होना स्वाभाविक ही है कि मुक्ति का वास्तविक हेतु क्या है? इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए ही १५५वीं गाथा लिखी गई है; जो इसप्रकार है - जीवादीसदहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं । रागादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो ॥१५५॥ जीवादि का श्रद्धान सम्यक् ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । रागादि का परिहार चारित - यही मुक्तिमार्ग है ॥ १५५॥ जीवादि पदार्थों का श्रद्धान सम्यक्त्व है, उन्हीं जीवादि पदार्थों का अधिगम (जानना) ज्ञान है और रागादि का त्याग चारित्र है; - यही मोक्ष का मार्ग है। यह एक सीधी-सादी, सहज, सरल, सुबोध गाथा है; जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का स्वरूप समझाया गया है और इन तीनों की एकता को मोक्षमार्ग बताया गया है। इस गाथा की आत्मख्याति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों को ही ज्ञान पर घटित करते हैं; क्योंकि पूर्व में यह कहते आये हैं कि ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है। उक्त कथनों से इस कथन की संगति बैठाने का ही यह सफल प्रयास है। उनका कथन मूलतः इसप्रकार है - ' __ "वस्तुतः मोक्ष का कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। उनमें जीवादिपदार्थों के श्रद्धानस्वभावरूप ज्ञान का होना - परिणमना सम्यग्दर्शन है, जीवादि पदार्थों के ज्ञानस्वभावरूप ज्ञान का होना - परिणमना सम्यग्ज्ञान है और रागादि के त्यागस्वभावरूप ज्ञान का होना - परिणमना सम्यक्चारित्र है। इसप्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - तीनों
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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