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गाथा ११६-१२०
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इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है. "यदि पुद्गलद्रव्य जीव में स्वयं अबद्ध रहे और स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित न हो तो वह अपरिणामी सिद्ध होगा। ऐसा होने पर संसार का अभाव सिद्ध होगा । कारण यह है कि कार्माणवर्गणा के कर्मरूप हुए बिना जीव कर्म रहित सिद्ध होगा, ऐसी स्थिति में संसार कैसा ? क्योंकि जीव की कर्मबद्ध अवस्था का नाम ही तो संसार है।
इससे बचने के लिए यदि यह तर्क उपस्थित किया जाय कि जीव पुद्गलद्रव्य को कर्मभाव से परिणमाता है, इसलिए संसार का अभाव नहीं होगा । इस तर्क पर विचार करने पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि स्वयं अपरिणमित पुद्गलद्रव्य को जीव कर्मरूप परिणमाता है कि स्वयं परिणमित पुद्गलद्रव्य को ?
स्वयं अपरिणमित पदार्थ को दूसरे के द्वारा परिणमित कराना शक्य नहीं है; क्योंकि वस्तु में जो शक्ति स्वतः न हो, उसे अन्य कोई नहीं कर सकता । तथा स्वयं परिणमित होने वाले पदार्थ को अन्य परिणमन कराने वाले की अपेक्षा नहीं होती; क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखतीं ।
इसप्रकार दोनों ही पक्षों से यह बात सिद्ध नहीं होती कि जीव पुद्गलद्रव्य को कर्मरूप परिणमाता है। अतः यही ठीक है कि पुद्गलद्रव्य स्वयं परिणामस्वभावी हो ।
ऐसी स्थिति में जिसप्रकार घटरूप परिणमित मिट्टी ही स्वयं घट है, उसीप्रकार जড়स्वभाववाले ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमित पुद्गलद्रव्य ही स्वयं ज्ञानावरणादि कर्म है।
इसप्रकार पुद्गलद्रव्य का परिणामस्वभावत्व सिद्ध हुआ । "
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उक्त कथन से यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो गई है कि कार्माणवर्गणारूप पुद्गलद्रव्य अपने परिणमनस्वभाव के कारण ही कर्मरूप परिणमित होता है। आगामी कलश में भी इसी बात को स्पष्ट किया गया है, जो इसप्रकार है ( उपजाति ) स्थितेत्याविघ्ना खलु पुद्गलस्य स्वभावभूता परिणामशक्तिः । तस्यां स्थितायां स करोति भावं यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता ॥ ६४ ॥