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________________ समयसार अनुशीलन 186 'यह पुद्गलद्रव्य जीव में स्वयं नहीं बंधा और कर्मभाव से स्वयं परिणमित नहीं हुआ' - यदि ऐसा माना जाये तो वह पुद्गल द्रव्य अपरिणामी सिद्ध होता है और कार्माणवर्गणाएँ कर्मभाव से परिणमित नहीं होने से संसार का अभाव सिद्ध होता है अथवा सांख्यमत का प्रसंग आता है। ___ यदि ऐसा माना जाय कि जीव पुद्गलद्रव्यों को कर्मभाव से परिणमाता है तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि स्वयं नहीं परिणमती हुई उन कार्माणवर्गणाओं को चेतन आत्मा कैसे परिणमन करा सकता है ? ___ यदि ऐसा माना जाय कि पुद्गल द्रव्य अपने आप ही कर्मभाव से परिणमन करता है तो जीव कर्म (पुद्गलद्रव्य) को कर्मरूप परिणमन कराता है, यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है। अतः ऐसा जानो कि जिसप्रकार नियम से कर्मरूप (कर्ता के कार्यरूप) परिणमित पुद्गलद्रव्य कर्म ही है; उसीप्रकार ज्ञानावरणादिरूप परिणत पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि ही है। उक्त गाथाओं की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि अब सांख्यमतानुयायी शिष्य के प्रति पुद्गलद्रव्य का परिणामस्वभावत्व सिद्ध करते हैं। ___ यहां यह प्रश्न हो सकता है कि आचार्य कुन्दकुन्द का शिष्य होकर कोई व्यक्ति सांख्यमतानुयायी कैसे हो सकता है; क्योंकि जो सांख्यमत को मानने वाला होगा, वह जैनाचार्य का शिष्यत्व कैसे स्वीकार कर सकता है ? ___ कोई-कोई व्यक्ति जैनधर्म की आस्था वाले होकर भी निश्चयनय के पक्ष को सुनकर उसके एकान्त में चढ़ जाते हैं और वस्तु के परिणमनस्वभाव की उपेक्षा कर उसे सर्वथा अपरिणामी ही मानने लगते हैं। वे प्रगटरूप से तो जैन ही रहते हैं, पर उनकी अन्तरमान्यता सांख्यों जैसी हो जाती है। ऐसे लोगों को ही यहाँ सांख्यमतानुयायी शिष्य कहकर संबोधित किया है। ___ इन गाथाओं में सयुक्ति यह सिद्ध किया गया है कि पुद्गल द्रव्य स्वयं परिणमनशील है, उसे अपने परिणमन में पर की रंचमात्र भी अपेक्षा नहीं है।
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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