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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का स्वानुभव से प्रत्यक्ष जाने ही; क्योंकि इसके साथ साधकपने का संबंध है। वे कर्मवर्गणा को प्रत्यक्ष न जानें तो भी श्रुतज्ञान के द्वारा स्वरूप में लीन होकर केवलज्ञान पा सकते हैं।
आत्मा के कुछ प्रदेश खुल जायें और शेष प्रदेश आवरणवाले रहें ह्र इसप्रकार के प्रदेशभेद आत्मा में नहीं हैं। जो सम्यग्दर्शनादि होते हैं, वे आत्मा के समस्त असंख्य प्रदेश में सर्वत्र होते हैं; अतः ‘आत्मा के थोड़े प्रदेश खुल गये और दूसरे आवरणवाले रहे' ह्र ऐसे अर्थ में तो दोज के चन्द्रमा का दृष्टान्त नहीं है; वह दृष्टान्त क्षेत्र अपेक्षा से नहीं, किन्तु गुण अपेक्षा से है; अतएव सम्यग्दर्शन होने पर चतुर्थ गुणस्थान में ज्ञानादि गुणों का कुछ सामर्थ्य खिल गया है और कुछ सामर्थ्य अभी खिलने को बाकी है ह्र ऐसा समझना।"
मुल्तानवाले भाइयों ने दोज और पूर्णमासी के चन्द्रमा, जलबिन्दु और महासागर तथा अग्नि की चिनगारी और अग्निकुण्ड की समानता के आधार पर क्षयोपशमज्ञान और क्षायिकज्ञान को समान मानकर जिसप्रकार तेरहवें गुणस्थानवाले केवलज्ञानी सभी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं; उसीप्रकार चौथे गुणस्थानवाले सम्यग्ज्ञानी जीव भी आत्मा को प्रत्यक्ष जानते होंगे ह्न इसप्रकार का प्रश्न उपस्थित किया था।
उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए पण्डितजी बड़ी ही सरलता से कहते हैं कि चौथे गुणस्थानवाले सम्यग्दृष्टि के ज्ञान में और तेरहवें गुणस्थानवाले सम्यग्दृष्टि के केवलज्ञान में ज्ञान के सम्यक् होने की अपेक्षा समानता है, सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा समानता है। प्रत्यक्षपने की अपेक्षा समानता नहीं है।
जिसप्रकार केवलज्ञानी का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है; उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि का ज्ञान भी सम्यग्ज्ञान ही है, मिथ्याज्ञान नहीं; तथापि जिसप्रकार केवलज्ञानी सभी पदार्थों को अनन्त गण-पर्यायों सहित एक समय में प्रत्यक्ष जानते हैं; उसीप्रकार सम्यग्ज्ञानी सबको सभी पर्यायों के साथ नहीं
सातवाँ प्रवचन जानते, प्रत्यक्ष नहीं जानते; अपितु छह द्रव्यों को कुछ पर्यायों के साथ आगम-अनुमानादि परोक्ष प्रमाणों से जानते हैं।
इसप्रकार जो प्रत्यक्ष और परोक्षपने का अन्तर तथा सब पर्यायों के साथ सबको जानने और कुछ पर्यायों के साथ सभी द्रव्यों के जानने संबंधी अन्तर क्षायिकज्ञान और क्षयोपशमज्ञान में है, वह तो है ही। ___ यदि सम्यग्ज्ञानी जीव आत्मा को प्रत्यक्ष जानते हैं तो फिर उन्हें कर्म वर्गणाओं को भी प्रत्यक्ष जानना चाहिए। __उक्त आशंका का निराकरण करते हुए पण्डितजी कहते हैं कि आत्मा को प्रत्यक्ष तो एकमात्र केवली ही जानते हैं, पर कर्मवर्गणाओं को अवधिज्ञानी भी प्रत्यक्ष जानते हैं। ___ तात्पर्य यह है कि आत्मा को प्रत्यक्ष जानने के आधार पर सम्यग्ज्ञानी मूर्तिक कार्माण वर्गणाओं को प्रत्यक्ष जानते होंगे ह्र जो लोग ऐसा सिद्ध करना चाहते हैं; उन्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि आत्मा को प्रत्यक्ष तो एकमात्र केवलज्ञानी ही जानते हैं, अन्य कोई नहीं; पर कार्माण वर्गणाओं को तो क्षयोपशम ज्ञानवाले अवधिज्ञानी भी जान लेते हैं। तात्पर्य यह है कि कार्मण वर्गणाओं को अवधिज्ञानी प्रत्यक्ष जान लेते हैं; पर अवधिज्ञान में आत्मा को जानने की सामर्थ्य ही नहीं है। ___ इसीप्रकार जिसप्रकार दोज के चन्द्रमा का कुछ भाग खुला रहता है
और बहुत कुछ भाग आच्छादित रहता है; उसीप्रकार आत्मा के कुछ प्रदेश ढंके रहते होंगे और कुछ खुले रहते होंगे।
इस आशंका के समाधान में पण्डितजी कहते हैं कि यह ढंकापन और खुलापन प्रदेशों की अपेक्षा नहीं, अपितु गुणों की अपेक्षा है।
इसीप्रकार 'व्यवहारसम्यक्त्व में निश्चयसम्यक्त्व गर्भित अर्थात् सदैव गमनरूप हैं' ह यह लिखकर पण्डितजी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि निश्चय-व्यवहार सम्यग्दर्शन आगे-पीछे नहीं, निरंतर साथ ही रहते हैं। वस्तुत: बात तो यह है कि सम्यग्दर्शन तो एक ही है। जो वास्तविक सम्यग्दर्शन है, उसे निश्चय सम्यग्दर्शन और उसके साथ नियम से
१. अध्यात्म संदेश, पृष्ठ १२४-१२५