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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने ।
भेदः साक्षादसाक्षाच्च हावस्त्वन्यतमं भवेत् ।।' अर्थ :हू स्याद्बाद अर्थात् श्रुतज्ञान और केवलज्ञान ह यह दोनों सर्व तत्त्वों का प्रकाशन करनेवाले हैं। विशेष इतना ही है कि केवलज्ञान प्रत्यक्ष है, श्रुतज्ञान परोक्ष है; परन्तु वस्तु है सो और नहीं है।
तथा तुमने निश्चय सम्यक्त्व का स्वरूप और व्यवहार सम्यक्त्व का स्वरूप लिखा है सो सत्य है; परन्तु इतना जानना कि सम्यक्त्वी के व्यवहार सम्यक्त्व में व अन्य काल में अंतरंग निश्चयसम्यक्त्व गर्भित है, सदैव गमनरूप रहता है।
तथा तुमने लिखा ह्न कोई साधर्मी कहता है कि आत्मा को प्रत्यक्ष जाने तो कर्मवर्गणा को प्रत्यक्ष क्यों न जाने ?
सो कहते हैं कि आत्मा को तो प्रत्यक्ष केवली ही जानते हैं, कर्मवर्गणा को अवधिज्ञानी भी जानते हैं।
तथा तुमने लिखा ह द्वितीया के चन्द्रमा की भाँति आत्मा के प्रदेश थोड़े से खुले कहो ?
उत्तर : यह दृष्टान्त प्रदेशों की अपेक्षा नहीं है, यह दृष्टान्त गुण की अपेक्षा है।"
स्वामीजी उक्त प्रकरण का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“जैसे पूर्णिमा का अंश दोज है, समुद्र का अंश जलबिन्दु है और बड़े अग्निकुण्ड का अंश एक अग्निकण है ह इन दृष्टान्तों में तो क्षेत्र अपेक्षा से अंश-अंशीपना है; परन्तु आत्मा में जो श्रुतज्ञान को पूर्ण ज्ञान का अंश कहा, उसमें क्षेत्र अपेक्षा से अंश-अंशीपना नहीं है, अपितु भाव अपेक्षा से है; क्षेत्र तो दोनों का एक ही है।
जैसे दोज का चन्द्र उदित होने पर चन्द्र का थोड़ा सा क्षेत्र खुला और शेष ढंका हुआ है, वैसे आत्मा में कहीं थोड़े प्रदेश निरावरण हुए और अन्य प्रदेश आवरणवाले रहे ह्न ऐसा नहीं है: अपित जैसे पूर्णचन्द्र प्रकाश १. अष्टसहस्री : परिच्छेद १०, कारिका १०५ १. रहस्यपूर्णचिट्ठी : मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ३४७-३४९
सातवाँ प्रवचन
१०७ देता है, वैसे दोज का चन्द्र भी प्रकाश देता है; प्रकाश देने का स्वभाव दोनों में एक सा है; एक पूरा प्रकाश देता है, दूसरा अल्प प्रकाश देता है ह्न इतना ही फर्क है। वैसे यहाँ आत्मा के केवलज्ञान पूर्ण प्रकाश करनेवाला है और मति-श्रुतज्ञान दोज के चन्द्र की तरह अल्प प्रकाश देता है, प्रकाश देने का स्वभाव दोनों में एक-सा है, अत: दोनों की एक ही जाति है। इसप्रकार इनमें अंश-अंशित्व समझना।
विशेष यह है कि तेरहवें गुणस्थान का केवलज्ञान व चौथे गुणस्थान का सम्यक् मति-श्रुतज्ञान ह्न इन दोनों में सम्यक्पने की अपेक्षा से एक जाति है; परन्तु जैसे केवलज्ञान समस्त पदार्थों को, असंख्य आत्मप्रदेश आदि को भी प्रत्यक्ष साक्षात् जानता है, वैसे मति-श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष नहीं जानता; अत: प्रत्यक्षपने की अपेक्षा से तो इन दोनों में समानता नहीं है, परन्तु जाति अपेक्षा से समानता है।
कोई कहे कि चतुर्थ गुणस्थान में निश्चय-सम्यक्त्व नहीं होता तो यह बात सच्ची नहीं। चौथे गुणस्थान से ही निश्चयसम्यक्त्व का निरन्तर परिणमन है। व्यवहार-सम्यक्त्व के साथ ही निश्चय-सम्यक्त्व यदि विद्यमान न हो तो वह व्यवहार-सम्यक्त्व भी सच्चा नहीं अर्थात् वहाँ सम्यक्त्व ही विद्यमान नहीं; परन्तु मिथ्यात्व है।
यहाँ व्यवहार-सम्यक्त्व में निश्चय सम्यक्त्व गर्भित है ह्न ऐसा कहा; गर्भित का अर्थ 'गौण' नहीं समझना; परन्तु एक वस्तु के कहने से दूसरी वस्तु उसमें आ ही जाय ह्न ऐसा यहाँ गर्भित' का अर्थ समझना।'
जैसे अवधिज्ञानी कार्माणवर्गणा वगैरह को प्रत्यक्ष देखते हैं, वैसे सम्यग्दृष्टि स्वानुभव में आत्मप्रदेश को प्रत्यक्ष नहीं देखते। आत्मप्रदेशों को प्रत्यक्ष तो केवली भगवान ही देखते हैं; समकिती के स्वानुभव में जो प्रत्यक्षपना कहा है, वह प्रदेश की अपेक्षा से नहीं कहा; परन्तु स्वानुभव में इन्द्रियादि का अवलम्बन नहीं है, इस अपेक्षा से कहा है।
सम्यग्दृष्टि साधक जीव कर्मवर्गणादि को तो प्रत्यक्ष जानें या न जानें ह्र इससे उनके साधकपने में अन्तर नहीं पड़ता; परन्तु आत्मा को तो १. अध्यात्म संदेश, पृष्ठ १०९-११० २. वही, पृष्ठ ११० ३. वही, पृष्ठ ११८