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तीसरा प्रवचन
संतप्त मानस शांत हों, जिनके गुणों के गान में। वे वर्द्धमान महान जिन, विचरें हमारे ध्यान में ।।
आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी कृत रहस्यपूर्णचिट्ठी की चर्चा चल रही है। अबतक पत्र के आरंभ में लिखी जानेवाली औपचारिक चर्चा ही हुई है; अब प्रश्नों के उत्तर आरंभ होते हैं।
पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं ह्र
'अब, स्वानुभवदशा में प्रत्यक्ष-परोक्षादिक प्रश्नों के उत्तर स्वबुद्धि अनुसार लिखते हैं।
वहाँ प्रथम ही स्वानुभव का स्वरूप जानने के निमित्त लिखते हैं ह्र जीव पदार्थ अनादि से मिथ्यादृष्टि है । वहाँ स्व-पर के यथार्थरूप से विपरीत श्रद्धान का नाम मिथ्यात्व है तथा जिसकाल किसी जीव के दर्शनमोह के उपशम-क्षय-क्षयोपशम से स्व-पर के यथार्थ श्रद्धानरूप तत्त्वार्थश्रद्धान हो, तब जीव सम्यक्त्वी होता है; इसलिए स्व-पर के श्रद्धान में शुद्धात्मश्रद्धानरूप निश्चयसम्यक्त्व गर्भित है ।
तथा यदि स्व-परका श्रद्धान नहीं है और जिनमत में कहे जो देव, गुरु, धर्म उन्हीं को मानता है; व सप्त तत्त्वों को मानता है; अन्यमत में कहे देवादि व तत्त्वादि को नहीं मानता है; तो इसप्रकार केवल व्यवहारसम्यक्त्व से सम्यक्त्वी नाम नहीं पाता; इसलिए स्व-पर भेदविज्ञानसहित जो तत्त्वार्थश्रद्धान हो उसी को सम्यक्त्व जानना । "
स्वानुभवदशा में सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र की उत्पत्ति होती है। मुलतानवाले भाइयों का मूल प्रश्न ही स्वानुभव दशा में प्रत्यक्ष-परोक्षादि ज्ञान की स्थिति के बारे में है; अतः सर्वप्रथम स्वानुभव को समझना आवश्यक है। स्वानुभव को समझने के लिए स्वानुभवदशा में उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र को समझना आवश्यक है। अतः सर्वप्रथम पण्डितजी सम्यग्दर्शन की चर्चा आरंभ करते हैं।
१. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ३४१-३४२
तीसरा प्रवचन
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स्व-पर के भेदविज्ञानपूर्वक यथार्थ श्रद्धानरूप तत्त्वार्थश्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। इस सम्यग्दर्शन में शुद्धात्मा के श्रद्धानरूप निश्चय सम्यग्दर्शन भी गर्भित है ।
उक्त निश्चयसम्यग्दर्शन ही वास्तविक सम्यग्दर्शन है; इसके बिना जिनागम में निरूपित सच्चे देव गुरु-धर्म को माननेरूप और अन्यमत कल्पित देवादि व तत्त्वों को न माननेरूप व्यवहारसम्यग्दर्शन मात्र से कोई सम्यग्दृष्टि नहीं हो जाता। अतः स्व-पर के भेदज्ञानसहित तत्त्वार्थश्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन जानना ।
शास्त्रों में सम्यग्दर्शन के मुख्यरूप से चार लक्षण प्राप्त होते हैं। १. सच्चे देव - शास्त्र - गुरु की श्रद्धा का नाम सम्यग्दर्शन है।
२. विपरीताभिनिवेश रहित तत्त्वार्थश्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। ३. आत्मश्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है।
४. स्व-पर भेदविज्ञानपूर्वक होनेवाला आत्मानुभव ही सम्यग्दर्शन है। वस्तुतः बात यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव में उक्त चारों बातें ही पाई जाती हैं। वस्तुत: बात यह है कि परद्रव्यों से भिन्न त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा की अनुभूतिपूर्वक निजात्मा में अपनापन ही वास्तविक सम्यग्दर्शन है, निश्चयसम्यग्दर्शन है। इसप्रकार स्व-पर भेदविज्ञानी आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टि जीव को तत्त्वार्थश्रद्धान और सच्चे देव-शास्त्रगुरु की श्रद्धा भी अनिवार्यरूप से होती है।
इसप्रकार भेदविज्ञानपूर्वक निजात्मा का श्रद्धान निश्चयसम्यग्दर्शन और सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा-भक्ति को व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा जाता है। ये निश्चय-व्यवहार ह्न दोनों सम्यग्दर्शन एक साथ ही उत्पन्न होते हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि निश्चयसम्यग्दर्शन तो सातवें गुणस्थान में होता है। चौथे गुणस्थान में होनेवाले सम्यग्दर्शन तो व्यवहारसम्यग्दर्शन हैं। इसप्रकार उनके मत में व्यवहारसम्यग्दर्शन पहले और निश्चयसम्यग्दर्शन बाद में होता है।
उनसे हमारा कहना यह है कि सम्यग्दर्शन तो एक ही है। निश्चय