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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का भाग्य की बात है कि टोडरमलजी को यह सुविधा प्राप्त नहीं थी, पर साधर्मी भाई रायमलजी को यह सुविधा प्राप्त थी । ब्र. रायमलजी ने अपने जीवन में इसका पूरा-पूरा लाभ उठाया। वे टोडरमलजी के पास सिंघाणा और जयपुर में रहे तथा जिनवाणी की सेवा तथा वीतरागी तत्त्वज्ञान के प्रचार-प्रसार में स्वयं को समर्पित कर दिया।
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पण्डित टोडरमलजी गृहस्थ विद्वान थे और साधर्मीभाई ब्रह्मचारी रायमलजी त्यागी - व्रती थे; फिर भी ब्र. रायमलजी स्वयं को पण्डित टोडरमलजी का सहयोगी ही समझते थे, उनसे तत्त्वज्ञान सीखने की भावना रखते थे, उनके लिए सभी सुविधायें जुटाने में संलग्न थे, उनकी पूरी अनुकूलता का ध्यान रखते थे।
वे चाहते थे कि उनसे जितना अधिक लिखा लिया जाय, उतना अच्छा है; क्योंकि वे समझते थे कि जिनवाणी की सेवा जितनी अच्छी पण्डितजी से हो सकती है, उतनी उनसे नहीं ।
कैसी विचित्र विडम्बना है कि महापण्डित टोडरमलजी तो सिंघाणा अपनी आजीविका के लिए गये थे; पर साधर्मी भाई ब्र. रायमलजी पण्डित टोडरमलजी के सत्समागम के लिए गये थे ।
उस युग में इन दो मल्लों (टोडरमल और रायमल) की जोड़ी ने जो कमाल कर दिखाया; उससे आज भी हम सब उपकृत हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के सान्निध्य में ब्रह्मचर्य लेने वाले आत्मार्थियों की वृत्ति और प्रवृत्ति भी ऐसी ही थी; पर आजकल इसमें कुछ शिथिलता आती जा रही है।
आज के बहुधंधी ब्रह्मचारियों को पण्डित टोडरमलजी, साधर्मी भाई मलजी एवं स्वामीजी के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, उनके जीवन से कुछ सीखना चाहिए।
इसके बाद पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं ह्र
"सो भाईजी, तुमने प्रश्न लिखे उनके उत्तर अपनी बुद्धि अनुसार कुछ लिखते हैं सो जानना और अध्यात्म आगम की चर्चागर्भित पत्र तो शीघ्र दिया करें, मिलाप तो कभी होगा तब होगा। और निरन्तर स्वरूपानुभवन का अभ्यास रखोगेजी। श्रीरस्तु ।”
दूसरा प्रवचन
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अबतक औपचारिकता की बातें चल रही थीं; अब उनके प्रश्नों के उत्तर लिखे जावेंगे, जिनकी चर्चा अगले प्रवचनों में होगी।
ज्ञानीजनों की औपचारिकता में भी महानता होती है, विनम्रता होती है, कुछ जानने लायक होता है, कुछ सीखने लायक होता है। देखो, उक्त वाक्यखण्ड में भी उनकी निरभिमानी विनम्रता झलकती है। चारों अनुयोगों के प्रतिपादक शास्त्रों को आगम और अध्यात्म के प्रतिपादक शास्त्रों को परमागम कहते हैं।
वे उनसे ऐसे ही आगम और अध्यात्मगर्भित पत्र लिखने का अनुरोध करते हैं; क्योंकि यातायातविहीन उस युग में सुदूरवर्ती आत्मार्थी भाईबहिनों से मिलाप होना इतना आसान नहीं था ।
पण्डितजी को इसप्रकार के पत्राचार में कोई रस नहीं था; जिसमें राजनीति की चर्चा हो, सामाजिक झगड़ों की चर्चा हो या घर-गृहस्थी की बातें हों। वे तो निरन्तर आगम और अध्यात्म में ही मग्न रहना चाहते थे ।
उससे भी अधिक महत्त्व उनकी दृष्टि में स्वरूपानुभवन का था । इसलिए वे लिखते हैं कि भले पत्र न दे सको तो कोई बात नहीं, पर आत्मा के अनुभव का प्रयत्न निरन्तर करते रहना; क्योंकि निरन्तर करने योग्य कार्य तो एकमात्र आत्मा के अनुभव का प्रयास करते रहना ही है ।
करणानुयोग के उच्च कोटि के विद्वान होने पर भी आत्मानुभव की इतनी लगन बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है। प्रायः देखा तो यह जाता है कि करणानुयोग के अभ्यासी उसी में लगे रहते हैं; आत्मानुभव की चर्चा तक नहीं करते हैं। करते भी हैं तो बहुत कम, वह भी अरुचिपूर्वक ।
इसीप्रकार आत्मा के अनुभव की बात करनेवालों को करणानुयोग नहीं रुचता; पर पण्डितजी की यह विशेषता है कि वे करणानुयोग के साथ-साथ अध्यात्म के भी पारंगत विद्वान थे और दोनों का संतुलन जैसा उनके जीवन में देखने में आता है, वैसा अन्यत्र अत्यन्त दुर्लभ है।