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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का वे अपनी बात की पुष्टि में जो प्रमाण प्रस्तुत करते हैं; वह प्रमाण तो इससे भी आगे हैं; क्योंकि उसमें तो बात करनेवालों को ही नहीं, प्रीतिपूर्वक आत्मा की बात सुननेवालों को भी अल्पकाल में मोक्ष जानेवाला बताया गया है। तात्पर्य यह है कि जब सुननेवाले भी निकटभव्य होते हैं तो बात करनेवाले और आत्मानुभूति करनेवालों का तो कहना ही क्या है ?
इसप्रकार हम देखते हैं कि पण्डित टोडरमलजी ने मुलतानवाले तत्त्वप्रेमी साधर्मी भाइयों को अध्यात्मरसरोचक विशेषण देकर उनके प्रति न केवल अपना सद्भाव प्रगट किया है, अपितु अपनी परिपुष्ट अध्यात्मरुचि का परिचय भी दे दिया है।
आचार्य अमृतचन्द्र समयसार परमागम की आत्मख्याति टीका पूरी करते हुए जो अन्तिम छन्द लिखते हैं, उसमें स्वयं तो स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र सूरि लिखते हैं। यह भी लिखते हैं कि इस आत्मख्याति टीका लिखने में स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र का कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है। तात्पर्य यह है कि स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र ने इसमें कुछ भी नहीं किया है।
आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार उनके दो रूप हैं। प्रथम तो वह जो निरन्तर आत्मा में गुप्त रहना चाहता है, रहता है और दूसरा वह जो प्रवचन करते थे, शिष्यों को पढ़ाते थे, शास्त्र लिखते थे। पहला है स्वरूप में गुप्त शुद्धोपयोगी अमृतचन्द्र का और दूसरा है पठन-पाठन करनेवाले शुभोपयोगी अमृतचन्द्र का।
आचार्यश्री कहते हैं कि मेरा अपनापन स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र में है। इसलिए मैं कहता हूँ कि यह लिखने-पढ़ने का काम स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र का नहीं है।
प्रश्न : यदि अमृतचन्द्र ने टीका नहीं की तो फिर उस टीका की प्रामाणिकता का क्या होगा ?
उत्तर : अरे, भाई ! स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र ने नहीं बनाई, पर टीका करने के विकल्पवाले आचार्य अमृतचन्द्र तो व्यवहार से टीका के कर्ता हैं ही।
तीन कषाय के अभावरूप शुद्धि तो दोनों अमृतचन्द्रों में है; अत:
दूसरा प्रवचन सच्ची मुनिदशा भी दोनों के ही विद्यमान है। अत: टीका की प्रामाणिकता में सन्देह के लिए कोई स्थान नहीं है।
आजकल जगत की स्थिति तो ऐसी है कि पत्रों में सब दुनियादारी की ही बातें लिखते हैं। समाज के झगड़े, राजनीति के झगड़े, गाँव के झगड़े, घर की समस्यायें, बीमारियों की चर्चा ह्र यही सबकुछ होता है आज के पत्रों में। ___ अरे, भाई ! संसार तो दुःखों का घर है; इसमें जीवों को संयोगवियोग, अनुकूलता-प्रतिकूलता तो लगी ही रहती है। जगत इस स्थिति के बीच यदि कोई आत्मानुभव संबंधी बात लिखता है तो वह नियम से विशिष्ट व्यक्ति है, धर्मात्मा है, साधर्मी है; उसके प्रति ज्ञानीजनों को वात्सल्यभाव का उमड़ना स्वाभाविक ही है।
इस संसार में अध्यात्म की चर्चा करनेवाले तो सदा ही कम रहनेवाले हैं। ६ महीना ८ समय में जब ६०८ जीवों को ही मोक्ष में जाना है तो मोक्षमार्ग के पथिक असीमित कैसे हो सकते हैं ? अतः आत्मार्थियों की संख्या कम देखकर चित्त को आंदोलित करने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु यह भी तो सहज ही है कि ज्ञानीजनों को इसप्रकार की चर्चा करनेवालों को देखकर प्रसन्नता होती ही है।
जौहरियों की दुकान पर भीड़ नहीं रहती। वहाँ तो गिने-चुने ग्राहक ही आते हैं। इसीप्रकार अध्यात्म की चर्चा करनेवाले तो थोड़े ही होते हैं।
दशलक्षण महापर्व के अवसर पर जब हमारे छात्र नगर-नगर में गाँवगाँव में प्रवचनार्थ जाते हैं तो मार्गदर्शन देते हुए मैं कहता हूँ कि यदि कहीं श्रोताओं की संख्या कम मिले तो अपने चित्त को आंदोलित नहीं करना । ___टोडरमल स्मारक भवन के प्रवचन मण्डप में, जहाँ मैं प्रवचन करने बैठता हूँ; उसकी दाहिनी ओर दीवाल पर एक चित्र लगा है; जिसमें दिखाया गया है कि हिरण को मारकर खाते हुए शेर को दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज उपदेश दे रहे हैं।
उस चित्र को दिखाते हुए मैं कहता हूँ कि देखो यह सभा, इसमें एक