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प्रवचनसार अनुशीलन प्रति भक्ति तथा वात्सल्य से चंचल चित्त श्रमण के, मात्र उतने राग से प्रवर्तमान परद्रव्यप्रवृत्ति के साथ शुद्धात्मपरिणति मिलित होने के कारण शुभोपयोगी चारित्र है। इससे ऐसा कहा गया है कि शुद्धात्मा का अनुराग युक्त चारित्र शुभोपयोगी श्रमणों का लक्षण है।
शुभोपयोगियों के शुद्धात्मा के अनुराग युक्त चारित्र होता है; इसलिए जिन्होंने शुद्धात्मपरिणति प्राप्त की है ह्र ऐसे श्रमणों के प्रति जो वंदननमस्कार, अभ्युत्थान, अनुगमनरूप विनीत वर्तन की प्रवृत्ति तथा शुद्धात्मपरिणति की रक्षा की निमित्तभूत ऐसी जो श्रम दूर करने की वैयावृत्तिरूप प्रवृत्ति है; वह शुभोपयोगियों के लिए दूषित नहीं है।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं के भाव को प्रस्तुत करते हुए निम्नांकित निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं ह्र
"इससे यह कहा गया है कि स्वयं शुद्धोपयोगरूप लक्षण परम सामायिक में ठहरने के लिए असमर्थ मुनि के शुद्धोपयोग के फलस्वरूप केवलज्ञान परिणत अन्य जीवों के प्रति और उसीप्रकार शुद्धोपयोग के आराधक जीवों के प्रति जो भक्तिभाव है, वह शुभोपयोगी श्रमणों का लक्षण है। शुद्धोपयोग के साधक शुभोपयोग में लिप्त मुनिराजों को रत्नत्रय की आराधना करनेवाले शेष पुरुषों के विषय में इसप्रकार की शुभोपयोगरूप प्रवृत्तियाँ योग्य ही हैं।" ___ पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं का भाव ३ छन्दों में और कविवर वृन्दावनदास जी इन गाथाओं के भाव को १ सवैया,१ छप्पय,१मनहरण, ३ सोरठा और ४ दोहे - इसप्रकार कुल मिलाकर १० छन्दों में प्रस्तुत करते हैं, जो सभी मूलत: पठनीय हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"मुनिराज आत्मस्वभाव में स्थिर नहीं हो सकते हों तो उन्हें शुभभाव होते हैं, उसकी मर्यादा क्या और कितनी है? अब, यह बताते हैं।'
गाथा २४६-२४७
१७७ यदि मुनिराज को शुभभाव हो तो अर्हन्त, सिद्ध आदि के प्रति भक्ति का राग होता है। कुदेवादि के प्रति भक्ति का राग नहीं होता । राग करना चाहिए अथवा इसप्रकार का राग करने योग्य है ह्र ऐसी उनकी मान्यता नहीं है। उन्हें तो राग का सर्वथा निषेध ही वर्तता है। राग को छोड़कर वे स्वरूप में लीन रहना चाहते हैं; अतः मुनिराज को अल्पराग वर्तता है, इसप्रकार किनके प्रति राग वर्तता है, उस भूमिका का यहाँ ज्ञान कराया है।'
जो जीव वीतरागी शास्त्रों में रत रहते हैं। शुद्धात्मा के अनुभव में ही रहने का प्रतिपादन करते हैं, उन जीवों के प्रति शुभोपयोगी मुनि को वात्सल्य भाव होता है।
अरहन्तादि के प्रति भक्ति तथा आगम परायण जीवों के प्रति वात्सल्य भाव, वह शुभोपयोगी मुनि का लक्षण है। शुभोपयोगी मुनि को शुभभाव यदि हो तो धर्मात्मा के प्रति होता है। यह निंदित या निषेधरूप नहीं है। दृष्टि में तो निषेध ही है, परन्तु चरणानुयोग में राग की भूमिकानुसार किस प्रकार का राग आता है, उसका यहाँ ज्ञान कराया है।"
इन गाथाओं में यह बात अत्यन्त स्पष्टरूप से कही गई है कि अनंतानुबंधी आदि तीन कषाय चौकड़ी और मिथ्यात्व का अभाव कर देनेवाले छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज भावना तो निरन्तर यही रखते हैं कि सदा शुद्धोपयोग में रहें; पर पर्यायगत कमजोरी के कारण जब यह संभव नहीं रहता; तब वे अरहंतादि की भक्ति और प्रवचनरत जीवों के प्रति वात्सल्यभाव से प्रवर्तते हैं।
यदि वे शुभोपयोगी मुनिराज सच्चे सन्तों को वंदन, नमस्कार, उनकी विनय और वैयावृत्ति करते हैं तो वे निंदनीय नहीं हैं।
१. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ २९५ २. वही, पृष्ठ २९६ ३. वही, पृष्ठ २९७ ४. वही, पृष्ठ ३०१
१. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ २९५