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प्रवचनसार अनुशीलन पदार्थ भेदाभेदात्मक होने से सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र और एकाग्रता ह्र दोनों मोक्षमार्ग हैं ह्र इसप्रकार प्रमाण से उसका प्रज्ञापन है।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं ।
इस गाथा के भाव को पंडित देवीदासजी तो एक छन्द में ही निपटा देते हैं; पर कविवर वृन्दावनदासजी इसके भाव को स्पष्ट करने के लिए १ मत्तगयन्द सवैया और १४ दोहे ह्न इसप्रकार कुल मिलाकर १५ छन्द लिखते हैं; जो सभी मूलतः पठनीय हैं।
गुरुदेव श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"यहाँ मोक्षमार्ग का अधिकार है। सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र यह मोक्षमार्ग है। आत्मा ज्ञानस्वरूप है और शरीर, मन, वाणी, राग-द्वेष आदि समस्त पदार्थ जानने योग्य है ह्न ऐसी ज्ञाता और ज्ञेय की प्रतीति होना वह सम्यग्दर्शन है । ज्ञेय और ज्ञाता की प्रतीतिपूर्वक अनुभूति सम्यग्ज्ञान है तथा विभाव से निवृत्ति और अंतर में रमणता सम्यक् चारित्र है । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की पर्याय तथा आत्मा दोनों भिन्न-भिन्न नहीं हैं, दोनों ही परस्पर गाढ़ मिलनरूप हैं। यही आत्मनिष्ठपना है । आत्मा के सन्मुख तत्परता ही संयतपना है ।""
इसप्रकार इस गाथा में यह कहा गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की एकरूपता सच्चा मुनिधर्म है, मुनिपना है। श्रद्धा गुण की सम्यग्दर्शन पर्याय, ज्ञान और ज्ञेयतत्त्व की यथार्थ प्रतीतिरूप है; ज्ञानगुण की सम्यग्ज्ञान पर्याय, यथार्थ अनुभूतिरूप है और चारित्र गुण की सम्यक्चारित्ररूप पर्याय, क्रियान्तर से निवृत्ति पूर्वक होनेवाली परिणतिरूप है। इन तीनों की एकता ही मुक्तिमार्ग है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ २७१
गाथा २४२
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इस गाथा के बाद की तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र ( शार्दूलविक्रीडित ) इत्येवं प्रतिपत्तुराशयवशादेकोऽप्यनेकीभवंस्त्रैलक्षण्यमथैकतामुपगतो मार्गोऽपवर्गस्य यः । द्रष्टृज्ञातृनिबद्धवृत्तिममलं लोकस्तमास्कन्दतामास्कन्दत्यचिराद्विकाशमतुलं येनोल्लसन्त्याश्चितेः ।। १६ ।। ( मनहरण कवित्त )
इसप्रकार जो प्रतिपादन के अनुसार ।
एक होकर भी अनेक रूप होता है । निश्चयनय से तो मात्र एकाग्रता ही ।
पर व्यवहार से तीनरूप होता है। ऐसे मोक्षमार्ग के अचलालम्बन से ।
ज्ञाता-दृष्टाभाव को निज में ही बाँध ले ॥ उल्लसित चेतना का अतुल विलास लख।
आत्मीक सुख प्राप्त करे अल्पकाल में ||१६|| इसप्रकार प्रतिपादक के अभिप्रायानुसार एक होने पर भी अनेक होता हुआ एक लक्षणपने को तथा त्रिलक्षणपने को प्राप्त मुक्तिमार्ग को, ज्ञाता-दृष्टा आत्मा में लीन होकर यह लोक अचलरूप से अवलम्बन करे; जिससे यह लोक उल्लसित चेतना के अतुल विकास को अल्पकाल में प्राप्त कर ले।
इस कलश में यही कहा गया है कि वक्ता के अभिप्रायानुसार एक होकर भी अनेक होता हुआ यह मुक्ति का मार्ग एक और त्रिलक्षणपने को प्राप्त होता है।
आचार्य कहते हैं कि हे जगत के जीवो! एक मात्र इसका ही अचल रूप से अवलम्बन करो; क्योंकि इससे ही जीव अल्पकाल में पूर्णानन्द को प्राप्त होते हैं।