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________________ प्रवचनसार अनुशीलन आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका के अनुसार ही स्पष्ट करते हैं। पण्डित देवीदासजी एक छन्द में उक्त भाव को व्यक्त कर देते हैं; पर कविवर वृन्दावनदासजी उक्त गाथा और उसकी तत्त्वप्रदीपिका टीका के भाव को १ माधवी, ५ दोहे और ३ सोरठे ह्न इसप्रकार कुल मिलाकर ९ छन्दों में विस्तार से समझाते हैं। उक्त सभी छन्द मूलत: पठनीय हैं। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं १५६ “आगम का ज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व होने पर भी, जिसे आत्मज्ञान नहीं है, उसका कल्याण नहीं हो सकता। आजतक अनेक जीवों ने आत्मज्ञान बिना ही आगम का अभ्यास किया है। आगम द्वारा छह द्रव्यों को स्वतंत्र जानकर, आगम और नवतत्त्वों की श्रद्धा करता है; पाँच इन्द्रियों की विषयाभिलाषा रोककर, पाँच महाव्रत, बारह व्रतरूप शुभभाव करता है; मुनि होकर २८ मूलगुण, संयमादि का पालन करता है; इतना सब कुछ होने पर भी आत्मज्ञान नहीं होने से सिद्धि को प्राप्त नहीं करता है।" संयमपालन किया, नवतत्त्वों की श्रद्धा की, आगम ज्ञान किया; फिर भी सर्वज्ञ भगवान कहते हैं कि हम उसे ज्ञानी नहीं कहते; क्योंकि वह ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव की रुचि नहीं करता । आगमज्ञान, नवतत्त्वों की श्रद्धा और इन्द्रियदमन से सम्यक्त्व नहीं होता है, फिर भी वह इससे ही सम्यक्त्व मानता है ।" इस रीति से जिस जीव को सूक्ष्म मिथ्यात्व रह गया है, उसके भावकर्म और निमित्तरूप द्रव्यकर्मों का नाश नहीं होता; अतः धर्म भी नहीं होता । इसप्रकार आत्मा चिदानन्द स्वरूप है। इसके ज्ञान बिना, शास्त्रज्ञान, १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ २३८ २. वही, पृष्ठ २३९ ३. वही, पृष्ठ २४२ गाथा २३९ १५७ तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतपना जरा भी लाभदायक नहीं है। एक साथ, एक समय में तीनों के होने पर भी आत्मा को लाभ नहीं होता। जबतक परसन्मुख दृष्टि है, तबतक आत्मलाभ नहीं हो सकता । " इस गाथा में ऐसे अनेक बिन्दु हैं; जो स्पष्टीकरण की अपेक्षा रखते हैं। जैसे ह्न सव्वागमधरो वि ह्र सर्वागम का धारक अर्थात् सम्पूर्ण आगम को जाननेवाला भी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। यह कैसे हो सकता है; क्योंकि सर्वागम का धारी तो श्रुतकेवली होता है और वह तो आत्मज्ञानहीन हो ही नहीं सकता है ? यह बात आचार्य अमृतचन्द्र के चित्त में भी उपस्थित हुई होगी, यही कारण है कि वे उक्त पद का अर्थ करते समय लिखते हैं कि सर्वागम का सार जाननेवाला भी.... । यहाँ सर्व आगमधर का अर्थ द्वादशांग का पाठी न लेकर ११ अंग और ९ पूर्व का पाठी लेना होगा; क्योंकि मिथ्यादृष्टि को अधिक से अधिक ११ अंग और ९ पूर्वों का ज्ञान ही हो सकता है। इसीप्रकार इस गाथा में कथित मूर्च्छा का आशय देहादि में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्वबुद्धिरूप मिथ्यात्व से ही है। सबकुछ मिलाकर निष्कर्ष यह है कि ग्यारह अंग और नौ पूर्व का पाठी एवं उक्त आगम में प्रतिपादित तत्त्वों की व्यवहार श्रद्धा से सम्पन्न तथा महाव्रतादि का धारी व्यक्ति भी यदि देहादि में एकत्व-ममत्व धारण करता हुआ त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा की अनुभूतिपूर्वक उसमें अपनापन नहीं रखता तो वह मोक्षमार्गी नहीं है, मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता । अत: यह सहज ही सिद्ध है कि आत्मज्ञानशून्य व्यक्ति के श्रद्धान, ज्ञान और संयम निरर्थक ही है। इस गाथा के बाद आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति टीका में एक गाथा ऐसी आती है; जो तत्त्वप्रदीपिका टीका में नहीं है। गाथा मूलतः इसप्रकार है १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ २४२ ह्न
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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