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प्रवचनसार गाथा २३३
विगत गाथा में सर्वज्ञकथित आगम के अभ्यास की प्रेरणा दी गई; क्योंकि आगम के अभ्यास बिना वस्तुस्वरूप समझना संभव नहीं है और अब इस गाथा में उसी बात को आगे बढाते हुए कह रहे हैं कि आगमहीन श्रमण के कर्मों का क्षय संभव नहीं है। गाथा मूलतः इसप्रकार है
आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि । अविजाणतो अत्थे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू ।। २३३ ।। ( हरिगीत )
जो श्रमण आगमहीन हैं वे स्व-पर को नहिं जानते ।
वे कर्मक्षय कैसे करें जो स्व-पर को नहिं जानते ॥ २३३॥ आगमहीन श्रमण आत्मा (स्वयं) को और पर को नहीं जानता । स्व-पर पदार्थों को नहीं जाननेवाला भिक्षु कर्मों का क्षय किस प्रकार कर सकता है ?
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
" वस्तुत: बात यह है कि आगम के अभ्यास बिना न तो स्वपरभेदविज्ञान होता है और न त्रिकाली ध्रुव निज परमात्मा का ही ज्ञान होता है। परात्मज्ञान (भेदविज्ञान) और परमात्मज्ञान से शून्य व्यक्ति के द्रव्य मोहादि और भाव मोहादि कर्मों अथवा ज्ञप्तिपरिवर्तनरूप कर्मों का क्षय नहीं होता । अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं ह्र
अनादि निरवधि संसारसरिता के प्रवाह को बहाने वाले महामोहमल्ल से मलिन यह आगमहीन जगत, धतूरा पिये हुए मनुष्य की भांति विवेक के नाश को प्राप्त होने से विवेकशून्य ज्ञानज्योति से यद्यपि देखता है; तथापि उसे स्वपरनिश्चायक आगमोपदेशपूर्वक स्वानुभव के अभाव के कारण आत्मा में आत्मप्रदेशस्थित शरीरादि द्रव्यों में तथा उपयोग
गाथा २३३
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मिश्रित मोह - राग-द्वेषादि भावों में 'यह पर है और यह आत्मा (स्व) है' ह्न ऐसा ज्ञान (भेदज्ञान) सिद्ध नहीं होता तथा परमात्मनिश्चायक आगमोपदेशपूर्वक स्वानुभव के अभाव के कारण विचित्र पर्यायों के समूहरूप और अगाध गंभीर स्वभाववाले विश्व को ज्ञेय बनानेवाले प्रतापवंत ज्ञानस्वभावी एक परमात्मा का ज्ञान भी सिद्ध नहीं होता।
इसप्रकार परात्मज्ञान और परमात्मज्ञान से शून्य आत्मा को द्रव्यकर्मों के उदय से होनेवाले शरीरादि और तत्संबंधी मोह-राग-द्वेषादि भावों के साथ एकता का अनुभव करने के कारण वध्य - घातक भाव के विभाग का अभाव होने से मोहादि द्रव्य-भावकर्मों का क्षय सिद्ध नहीं होता; तथा परज्ञेयनिष्ठता से प्रत्येक वस्तु के उत्पाद - विनाशरूप परिणमित होने से अनादिकाल से परिवर्तन को प्राप्त ज्ञप्ति का परिवर्तन परमात्मनिष्ठता के अतिरिक्त अनिवार्य होने से ज्ञप्ति - परिवर्तनरूप कर्मों का क्षय भी सिद्ध नहीं होता । इसलिए कर्मक्षयार्थियों को सभीप्रकार से आगम की उपासना करना चाहिए।"
आचार्य जयसेन विगत गाथा में कही गई अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए इस गाथा की तात्पर्यवृत्ति टीका में गोम्मटसार: जीवकाण्ड की गाथा २ और दोहापाहुड की गाथा १२८ का उल्लेख करते हुए अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहते हैं ह्र
“गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा और १४ मार्गणायें तथा उपयोग ह्नये क्रम से बीस प्ररूपणायें कही गई हैं। जो व्यक्ति उक्त गाथा में कहे गये आगम को नहीं जानता और इसीप्रकार जिसके द्वारा अपने शरीर से भिन्न अपना परमार्थ, परमपदार्थ भगवान आत्मा नहीं जाना गया; वह अंधा व्यक्ति दूसरे अंधों को क्या मार्ग दिखायेगा ?२
इसप्रकार जो पुरुष दोहापाहुड में कहे गये आगमपद के सारभूत १. गुणजीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा व मग्गणाओ य ।
उवओगोवि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिदा ।। ह्र गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गा. २ २. भिण्णउ जेण ण जाणियउ णियदेहहं परमत्थु ।
सो अंधउ अवरहं अंधयह किम दरिसावड़ पंथु ।। ह्र दोहापाहुड, गाथा १२८