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प्रवचनसार अनुशीलन
हुई मांस की पेशी खाता है अथवा छूता है; वह पुरुष निरन्तर इकट्ठे हुए अनेक जाति के जीव समूह के पिंड का घात करता है।
प्रश्न ह्न क्या मुनिराजों के आहारसंबंधी चर्चा के संदर्भ में मांस-मधु की बात कुछ अटपटी नहीं लगती ? जो वस्तुएँ सामान्य श्रावक भी नहीं खाते, उनके बारे में उक्त प्रसंग में कुछ कहना ?
उत्तर ह्न यहाँ प्रत्यक्ष मधु-मांस की बात नहीं है, अपितु त्रस जीवों के शरीर को मांस कहते हैं और असावधानी से या अमर्यादित वस्तुओं के सेवन से जो परोक्ष संभावना है, उससे सावधान रहने की बात है। इस लोक में कुछ लोग ऐसे भी तो हैं; जो इसप्रकार के आरोप तीर्थंकर मुनिराज महावीर पर भी लगाते हैं; अत: यह चर्चा यहाँ अनावश्यक नहीं है।
तीसरी गाथा इसप्रकार है ह्र
अप्पsिकुटुं पिंडं पाणिगयं णेव देयमण्णस्स । दत्ता भोत्तुमजोग्गं भुत्तो वा होदि पडिकुट्ठो ।। ३४।। ( हरिगीत )
जिनागम अविरुद्ध जो आहार होवे हस्तगत ।
नहीं देवे दूसरों को दे तो प्रायश्चित योग्य हैं ||३४|| हाथ में आया हुआ आगम से अविरुद्ध आहार दूसरों को नहीं देना चाहिए। दे दिये जाने पर वह भोजन खाने योग्य नहीं रहता। फिर भी यदि कोई वह भोजन करता है तो वह प्रायश्चित्त के योग्य है।
इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए टीका में लिखा गया है कि जो हाथ में आया हुआ आहार दूसरों को नहीं देता है, उससे उसकी मोहरहित आत्मतत्त्व की भावनारूप मोहरहित वीतरागता ज्ञात होती है।
तात्पर्य यह है कि उसे किसी से राग ही नहीं है तो फिर वह किसी को वह आहार देगा ही क्यों ? क्योंकि राग बिना तो आहार दिया नहीं
जाता।
अरे भाई ! मुनिराज तो आहार लेते हैं; देते नहीं । वे स्वयं तो आहार बनाते नहीं और उनके लिए दूसरों से प्राप्त आहार दूसरे को देने के भावरूप दया उनके वीतरागी व्यक्तित्व के अनुकूल नहीं है ।
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प्रवचनसार गाथा २३०
२२९वीं गाथा में युक्ताहार की विशेषताएँ बताई गई थीं और अब इस गाथा में उत्सर्ग और अपवादमार्ग की मैत्री दिखाते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र
बालो वा वुड्ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा । चरियं चरदु सजोगं मूलच्छेदो जधा ण हवदि । । २३० ।।
(हरिगीत )
मूल का न छेद हो इस तरह अपने योग्य ही ।
वृद्ध बालक श्रान्त रोगी आचरण धारण करें ॥ २३०॥
बाल, वृद्ध, श्रान्त (थके हुए) अथवा ग्लान ह्न रोगी श्रमण, मूल का छेद जैसे न हो, उसप्रकार अपने योग्य आचरण करें।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“बाल, वृद्ध, श्रान्त ( थके हुए) और रोगी श्रमणों के द्वारा भी, शुद्धात्मतत्त्व के मूल साधक संयम का छेद जिसप्रकार न हो, उसप्रकार अपने योग्य अति कठोर आचरण किया जाना ही उत्सर्गमार्ग है। इसीप्रकार बाल, वृद्ध, श्रान्त और रोगी श्रमणों के द्वारा शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम का मूलभूत साधन होने से शरीर का छेद जिसप्रकार न हो, उस प्रकार अपने योग्य मृदु आचरण किया जाना ही अपवाद मार्ग है ।
बाल, वृद्ध, श्रान्त और रोगी श्रमणों द्वारा शुद्धात्मतत्त्व के मूल साधक संयम का छेद जिसप्रकार न हो, उसप्रकार अपने योग्य अति कठोर आचरण करते हुए भी शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम का मूलभूत साधन होने से शरीर का छेद जिसप्रकार न हो, उसप्रकार अपने योग्य मृदु आचरण किया जाना अपवाद सापेक्ष उत्सर्गमार्ग है।
इसीप्रकार बाल, वृद्ध, श्रान्त और रोगी श्रमणों द्वारा शुद्धात्मतत्त्व के