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प्रवचनसार अनुशीलन
बुद्धिपूर्वक उपस्थिति और उसकी संभाल का भाव रागादिभावरूप ही है। तात्पर्य यह है कि बहिरंग छेद अंतरंग छेद का आयतन है; अतः अंतरंग छेद के त्याग के लिए बहिरंग छेदरूप परिग्रह का पूर्णतः त्याग आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य है।
इस गाथा के बाद आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में उपर्युक्त भाव की पोषक ३ गाथायें प्राप्त होती हैं; जो आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका में प्राप्त नहीं होती। वे गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं ह्र
गेण्हदि व चेलखंडं भायणमत्थि त्ति भणिदमिह सुत्ते । जदि सो चत्तालंबो हवदि कहं वा अणारंभो ।। १७ ।। वत्थक्खंडं दुद्दियभायणमण्णं ण गेण्हदि णियदं । विज्जदि पाणारंभो विक्खेवो तस्स चित्तम्मि ।। १८ ।। गेहड़ विधुणड़ धोवड़ सोसेड़ जदं तु आदवे खित्ता । पत्तं व चेलखंडं विभेदि परदो य पालयदि ।। १९ ।। ( हरिगीत )
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वस्त्र बर्तन यति रखें यदि यह किसी के सूत्र में । ही कहा हो तो बताओ यति निरारंभी किसतरह ॥१७॥ रे बस्त्र बर्तन आदि को जो ग्रहण करता है श्रमण | नित चित्त में विक्षेप प्राणारंभ नित उसके रहे ||१८|| यदि बस्त्र वर्तन ग्रहे धोवे सुखावे रक्षा करे।
खो न जावे डर सतावे सतत ही उस श्रमण को ॥ १९ ॥ 'साधु वस्त्रों को ग्रहण करता है और उसके पास बर्तन भी होते हैं' ह्र यदि किसी आगम में ऐसा कहा गया है तो सोचने की बात यह है कि वस्त्र और बर्तन रखनेवाला साधु निरावलंबी और अनारंभी भी कैसे हो सकता है ?
वस्त्र के टुकड़े, दूध के बर्तन तथा अन्य वस्तुओं को यदि वह ग्रहण करता है तो उसके जीवों का घात और चित्त में विक्षेप बना रहता है। वह बर्तन व वस्त्रों को ग्रहण करता है, धूल साफ करता है, धोता है और सावधानीपूर्वक धूप में सुखाता है, इनकी रक्षा करता है और दूसरों से डरता है ।
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प्रवचनसार गाथा २२१
२२०वीं गाथा में यह कहा गया है कि उपधि (परिग्रह) का निषेध अंतरंग छेद का ही निषेध है और अब इस २२१वीं गाथा में 'उपधि एकान्तिक अंतरंग छेद है' ह्र इस बात को विस्तार से समझाया जा रहा है । गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र
किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स । तध परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि । । २२१ ।। ( हरिगीत )
उपधि के सद्भाव में आरंभ मूर्छा असंयम ।
हो फिर कहो परद्रव्यरत निज आत्म साधे किसतरह || २२१ ॥ उपधि (परिग्रह) के सद्भाव में मुनिराजों के मूर्छा, आरंभ या असंयम न हो ह्न यह कैसे हो सकता है तथा परद्रव्यरत साधु आत्मा को कैसे साध सकता है ?
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“उपधि के सद्भाव में ममत्वपरिणामरूप मूर्छा, परिग्रह संबंधी कार्य से युक्त होनेरूप आरंभ अथवा शुद्धात्मस्वरूप का घातक असंयम होता ही है। आत्मा से भिन्न परद्रव्यरूप परिग्रह में लीनता होने के कारण शुद्धात्मद्रव्य की साधकता का अभाव होता है। इसकारण उपधि (परिग्रह) के एकान्ततः अंतरंग छेदपना निश्चित होता है। तात्पर्य यह है कि 'उपधि ऐसी है' ह्र ऐसा निश्चित करके उसे सर्वथा छोड़ देना चाहिए।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए तत्त्वप्रदीपिका के प्रतिपादन को मात्र दुहरा ही देते हैं।
इस गाथा के भाव को पण्डित देवीदासजी १ छप्पय में और पण्डित वृन्दावनदासजी १ मनहरण कवित्त और ४ दोहे ह्न इसप्रकार ५ छन्दों में