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प्रवचनसार अनुशीलन
यद्यपि छठवें गुणस्थान की भूमिका में कोई दोष नहीं लगा है; क्योंकि शरीर की चेष्टा आत्मा की नहीं है; अतः शरीर की चेष्टा का दोष आत्मा को नहीं है; किन्तु शुभविकल्प उठते ही स्व-आत्मा का लक्ष्य शरीर की चेष्टा पर गया, उससमय जो फेर फार हुआ उसकी आलोचना की यहाँ बात है।
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वास्तव में अन्तर स्वभाव में दोष नहीं लगा; क्योंकि अन्तर स्वभाव में दोष लगे या स्वसंवेदन की भूमिका नहीं रहे तो वह जीव अपने स्वभाव से च्युत हो गया है। ऐसे समय में वे जीव आचार्य के समीप जाकर निवेदनपूर्वक प्रायश्चित्त लेते हैं।
अहो ! जिनके अन्तर में वैराग्य की धारा बहती हो, जिन्हें देखते ही ऐसा लगता हो कि यह तो जगत के परमेश्वर है। आत्मा के असंख्य प्रदेशों से जिन्हें निरन्तर निर्विकल्प आनन्द की धारा बहती हो ह्र ऐसे अन्तर स्वरूप में झूलने वाले मुनिराज तो जगत के धर्मपिता हैं। २"
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि मुनि अवस्था में दो प्रकार के दोष लगते हैं। एक तो कायसंबंधी क्रियाओं में और दूसरे अपने उपयोग में। कायसंबंधी क्रियाओं में अनजाने में हो गया स्खलन बाह्य छेद है; क्योंकि इसमें जान-बूझकर कुछ नहीं किया गया है; अत: इसका परिमार्जन प्रतिक्रमणपूर्वक की गई आलोचना से ही हो जाता है।
दूसरे में उपयोग संबंधी स्खलन होता है। मुनिधर्म में निषेध्य कार्यों में उपयोग का रंजायमान होना ही अंतरंग छेद है। इसके परिमार्जन के लिए निर्यापक गुरु के पास जाकर स्वयं ही सब निवेदन करना होता है। और वे जो भी प्रायश्चित्त दें, उसे सच्चे मन से स्वीकार करके पालन करना
होता है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ ६१
२. वही, पृष्ठ-६१
प्रवचनसार गाथा २१३-२१४
विगत गाथाओं में छिन्न संयम और उसके परिमार्जन की विधि बताई गई है। अब इन गाथाओं में यह बताते हैं कि छेद का आयतन परद्रव्य हैं और श्रामण्य की परिपूर्णता का आयतन स्वद्रव्य है; इसलिए परद्रव्य में प्रतिबंध निषेध्य है और स्वद्रव्य में प्रतिबंध विधेय है ।
गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं ह्र
अधिवासे व विवासे छेदविहूणो भवीय सामण्णे । समणो विहरदु णिच्चं परिहरमाणो णिबंधाणि । । २१३ ।। चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्हि दंसणमुहम्हि ।
पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो ।। २१४ ।। ( हरिगीत )
श्रम! अधिवास में या विवास में बसते हुए । प्रतिबंध के परिहारपूर्वक छेदविरहित ही रहो ||२९३ ।। रे ज्ञान-दर्शन में सदा प्रतिबद्ध एवं मूलगुण ।
जो यत्नतः पालन करें बस हैं वही पूरण श्रमण || २१४ || हे श्रमणजनो ! अधिवास (आत्मवास अथवा गुरुओं के सहवास) में या विवास (गुरुओं के वास से भिन्न वास) में बसते हुए परद्रव्य संबंधी प्रतिबंधों (प्रतिबद्धता) का परिहरण करते हुए सदा श्रामण्य में छेद विहीन होकर विहरो ।
जो श्रमण ज्ञान में और दर्शनादि में सदा प्रतिबद्ध तथा मूलगुणों में सावधानीपूर्वक वर्तन करता है; वह परिपूर्ण श्रामण्यवान है।
उक्त गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"सभी प्रकार के चेतन-अचेतन परद्रव्यों के प्रति प्रतिबंध (प्रतिबद्धता) उपयोग का उपरंजक होने से निरुपराग उपयोगरूप श्रामण्य के