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________________ प्रकाशकीय इक्कीसवीं शताब्दी में जैन समाज के मूर्धन्य विद्वानों में तत्त्ववेत्ता डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल अग्रिम पंक्ति में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। सन् १९७६ से जयपुर से प्रकाशित आत्मधर्म और फिर उसके पश्चात् वीतरागविज्ञान के सम्पादकीय लेखों के रूप में आपके द्वारा जो कुछ भी लिखा गया; वह सब आज जिन - अध्यात्म की अमूल्य निधि बन गया है तथा लगभग सभी पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होकर स्थायी साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है। अबतक आपकी लगभग ७० कृतियाँ हिन्दी में प्रकाशित होकर अनेक संस्करणों के माध्यम से जन-जन तक पहुँच कर लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच चुकी हैं। अनेक कृतियों के गुजराती, मराठी, कन्नड़, तमिल तथा अंग्रेजी आदि भाषाओं के अनुवाद भी अनेक संस्करणों के रूप में प्रकाशित होकर समाज में पहुँच चुके हैं। अब तो इन्टरनेट के माध्यम से विश्व के कोनेकोने में आपका साहित्य पहुँच चुका है। आपकी कृतियों की सूची इसी कृति में अन्यत्र दी गई है। डॉ. भारिल्ल द्वारा अबतक लगभग ८ हजार से भी अधिक पृष्ठ लिखे जा चुके हैं, जो एक रिकार्ड है। आपके द्वारा लिखा गया साहित्य देश की आठ भाषाओं में ब्यालीस लाख से भी अधिक की संख्या में प्रकाशित होकर जनजन तक पहुँच चुका है और आज भी अल्प मूल्य में सर्वत्र उपलब्ध है। यह तो सर्वविदित ही है कि "डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व” नामक शोधप्रबंध पर सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर ने डॉ. महावीरप्रसाद जैन, टोकर (उदयपुर) को पीएच.डी. की उपाधि प्रदान की है। उनके साहित्य को आधार बनाकर अनेक छात्रों ने लघु शोध प्रबंध भी लिखे हैं, जो राजस्थान विश्वविद्यालय में स्वीकृत हो चुके हैं एवं अनेक शोधार्थी अभी भी डॉ. भारिल्ल के साहित्य पर शोधप्रबंध शोधकार्य कर रहे हैं। उनके साहित्य पर शोधकार्य करनेवाले छात्रों को डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल चैरिटेबल ट्रस्ट, मुम्बई द्वारा छात्रवृत्ति भी प्रदान की जाती है। प्रात:स्मरणीय आचार्य कुन्दकुन्द कृत ग्रन्थाधिराज समयसार तथा प्रवचनसार के हार्द को जन सामान्य समझ सके ह्र इस भावना से आपने अत्यन्त सरल भाषा में समयसार अनुशीलन व प्रवचनसार अनुशीलन लिखे हैं । प्रसन्नता का विषय है कि समयसार अनुशीलन पाँच भागों में प्रकाशित होकर लाखों की संख्या में समाज के स्वाध्याय प्रेमियों तक पहुँच चुका है। प्रवचनसार अनुशीलन के भी दो भाग प्रकाशित हो चुके हैं और यह तीसरा भाग आपके हाथों में प्रस्तुत है । प्रवचनसार का विषय गूढ, गम्भीर एवं सूक्ष्म है। इसे समझने के लिए बौद्धिक पात्रता भी अधिक चाहिए। विशेष रुचि एवं खास लगन के बिना प्रवचनसार के विषय को समझना सहज नहीं है। अतः पाठकों को अधिक धैर्य रखते हुए इसका स्वाध्याय करना आवश्यक है। आध्यात्मिकसत्पुरुष पूज्य श्री कानजी स्वामी ने आचार्य कुन्दकुन्द के पंच परमागमों को आत्मपिपासुओं के लिए प्रवचनों के माध्यम से लोकप्रिय बनाया तो डॉ. भारिल्ल ने भी सरल व सुबोध भाषा में जन सामान्य को समझने के लिए अनुशीलन के रूप में साहित्य उपलब्ध कराकर महती कार्य किया है, जिसके लिए समाज उनका चिर ऋणी रहेगा। समयसार और प्रवचनसार ह्र दोनों ही ग्रंथराजों की आपने सरल-सुबोध भाषा में टीकायें भी लिखी हैं और इन ग्रन्थों के सार को समयसार का सार और प्रवचनसार का सार नाम से प्रस्तुत किया है। इसप्रकार उन्होंने समयसार और प्रवचनसार ग्रन्थराजों को जन-जन तक पहुँचाने का महान कार्य किया है। उनके द्वारा विगत २५ वर्षों से लगातार विदेश यात्रायें की जा रही हैं, जहाँ वे विश्व के कोने-कोने में तत्त्वज्ञान का अलख जगा रहे हैं। इस पुस्तक की टाइपसैटिंग श्री दिनेश शास्त्री ने मनोयोगपूर्वक की है तथा आकर्षक कलेवर में मुद्रण कराने का श्रेय प्रकाशन विभाग के मैनेजर श्री अखिल बंसल को जाता है। अतः दोनों महानुभाव धन्यवाद के पात्र हैं। प्रस्तुत संस्करण की कीमत कम करने में जिन दातारों ने आर्थिक सहयोग प्रदान किया है, जिनकी सूची इसी ग्रंथ में अन्यत्र प्रकाशित है; उन्हें भी ट्रस्ट की ओर से हार्दिक धन्यवाद। सभी जिज्ञासु इस अनुशीलन का पठन-पाठन कर आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करें ह्र इसी भावना के साथ ह १३ अप्रैल २००८ ई. ब्र. यशपाल जैन, एम. ए. प्रकाशनमंत्री, पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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