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प्रवचनसार अनुशीलन आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“जिन्होंने अनेकान्त को जानकर प्रतीतिपूर्वक निजस्वरूप की लीनता की है, वे अब पुनः पाँच इन्द्रियादि विषयों में वृत्ति उत्पन्न नहीं करते।
ऐसे सकल महिमावंत शुद्धोपयोगी मुनिराज ही मोक्षमार्गरूप हैं।'
दया-दानादि के भाव अशुद्धोपयोग हैं और चैतन्य के आश्रय से उत्पन्न शुद्धोपयोग मोक्षतत्त्व का साधनतत्त्व अथवा मोक्षमार्ग है।' __ व्यवहार, पुण्य और निमित्त रहित शुद्धदशा को मोक्षमार्ग कहा है। मोक्षमार्ग निर्दोष वीतरागीदशा है। दशा दशावान से भिन्न नहीं रहती ह्र ऐसी दशा के धारक सकल महिमावंत शुद्धोपयोगी मुनि को मोक्षमार्ग का साधन तत्त्व अथवा मोक्षमार्ग जानना चाहिए।
शुद्धोपयोगी मुनिराज को मोक्षमार्ग कहा; उसका प्रमुख कारण यह है कि अनादि संसार में रमे हुए, बंधे हुए विकट कर्मरूपी डोरी को खोलने का वे अति उग्र प्रयत्न/पराक्रम कर रहे हैं।'
इसप्रकार अन्तरवीर्य सहित शुद्धता को प्राप्त करने और निमित्तरूप कर्म को तोड़ने का प्रयत्न करनेवाले महामुनिराज को मोक्षमार्ग अथवा मोक्ष का साधनतत्त्व कहा है।''
२७२वीं गाथा में भावलिंगी श्रमणों को मोक्षतत्त्व कहा था और अब इस २७३वीं गाथा में उन्हीं को मोक्ष का साधनतत्त्व कहा जा रहा है, मोक्षमार्ग कहा जा रहा है। इसका सीधा-सच्चा अर्थ यह है कि निज भगवान आत्मा को जानकर, पहिचानकर, उसी में अपनापन स्थापित कर, उसी में समा जानेवाले नग्न दिगम्बर श्रमण ही मोक्ष तत्त्व हैं और वे ही मोक्षमार्ग तत्त्व हैं। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण धर्मतत्त्व भावलिंगी नग्न दिगम्बर सन्तों में ही समाहित है।
प्रवचनसार गाथा २७४ विगत गाथा में जिन शुद्धोपयोगी श्रमणों को मोक्षतत्त्व के साधनतत्त्व के रूप में स्थापित किया गया है; अब इस गाथा में उन्हीं शुद्धोपयोगी श्रमणों का सर्व मनोरथों के स्थान के रूप में अभिनन्दन करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं । सुद्धस्स य णिव्वाणं सो च्चिय सिद्धो णमो तस्स ।।२७४।।
(हरिगीत) है ज्ञान-दर्शन शुद्धता निज शुद्धता श्रामण्य है।
हो शुद्ध को निर्वाण शत-शत बार उनको नमन है।।२७४|| शुद्ध अर्थात् शुद्धोपयोगी को श्रामण्य कहा है, शुद्ध को ही दर्शन और ज्ञान कहा है और शुद्ध को ही निर्वाण होता है। सिद्ध होनेवाले शुद्धोपयोगियों को और सिद्धों को बारम्बार नमस्कार हो।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकतारूप से प्रवर्तमान एकाग्रता लक्षण साक्षात् मोक्षमार्गरूप श्रामण्य शुद्ध (शुद्धोपयोगी) के ही होता है। समस्त भूत, वर्तमान और भावी व्यतिरेकों के साथ मिलित अनन्त वस्तुओं का अन्वयात्मक विश्व के सामान्य और विशेष के प्रत्यक्ष प्रतिभासस्वरूप दर्शन-ज्ञान भी शुद्ध के ही होते हैं। निर्विघ्न खिला हुआ सहज ज्ञानानन्द की मुद्रावाला दिव्य निर्वाण भी शुद्ध के ही होता है और टंकोत्कीर्ण परमानन्द अवस्थारूप से सुस्थित आत्मस्वभाव की उपलब्धि से गंभीर सिद्धदशा को शुद्ध (शुद्धोपयोगी) ही प्राप्त करते हैं। अधिक कहने से क्या लाभ है ? सर्व मनोरथों के स्थानभूत, मोक्षतत्त्व के साधनतत्त्वरूप शुद्ध को; जिसमें परस्पर अंगअंगीरूप से परिणमित भावक-भाव्यता के कारण स्व-पर विभाग अस्त
१. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ४७१ २. वही, पृष्ठ ४७१ ४. वही, पृष्ठ ४७३
३. वही, पृष्ठ ४७१-४७२ ५. वही, पृष्ठ ४७४