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प्रवचनसार अनुशीलन विशेष निर्मलता है या नहीं आदि बातों की लक्षणों से पहिचान करना चाहिए।
अन्यत्र कथन आता है कि मुनिराज की परीक्षा तीन दिन तक करना चाहिए, किन्तु प्रथम मान- सत्कारादि अवश्य करो। उसके पश्चात् गुणप्रमाण पूर्वक भेद करो ह्र ऐसा जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है।
प्रथमतः बाह्य में नग्नदशा आदि यथायोग्य लिंग देखकर सत्कारपूर्वक गुणों की परीक्षा करना चाहिए। अपने से गुण या दीक्षा में बड़े हों तो उनको देखकर खड़े होकर "अत्रो - अत्रो" कहना चाहिए। मुनिराज को थकान हो तो उनके पैर दबाना चाहिए। उनके आहार एवं शयन का विचार करना चाहिए । यह जगह मुनियों के लिए अनुकूल होगी या नहीं, इसका भी विचार करना चाहिए। उनके गुणों की प्रशंसा करते हुए उन्हें विनयादि से हाथ जोड़कर प्रणाम करना चाहिए।
वास्तव में एक मुनिराज अपने से अधिक गुणयुक्त मुनि को देखकर विनय से खड़े होते हैं। उनका आदर करते हैं। गृहस्थ उनकी सेवा करते हैं। उनके आहार, पानी, शयन इत्यादि का विचार करते हैं। उनके गुणों की प्रशंसा करके विनयभाव से हाथ जोड़ते हैं, प्रणामादि विधि आचरते हैं।
यदि मुनिराज निजस्वरूप में लीन हों तो कोई विधि नहीं करना चाहिए, किन्तु शुभोपयोग में हों तो सर्वज्ञ के कहे अनुसार मुनिस्वरूप को पहिचानकर उनका आदर-सत्कार अवश्य करना चाहिए। *
जबतक, स्वस्वरूप में स्थिरता नहीं होती, तबतक अन्य मुनिराजों के प्रति आदर का विकल्प उठता है । यद्यपि मुनिराज जानते हैं कि यह शुभविकल्प हैं, मेरी शांति को नष्ट करनेवाले विष के कुंभ है। इनसे मुझे धर्म नहीं हो सकता, तथापि जबतक विकल्पयोग्य भूमिका होती है, तबतक अन्य मुनिराजों के प्रति बहुमान आये बिना नहीं रहता।
१. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ३९७ ३. वही, पृष्ठ ४०४
२. वही, पृष्ठ ४०३
४. वही, पृष्ठ ४०८
गाथा २६९ - २६३
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जिन मुनिराजों को बाह्य में नग्नदशा वर्तती है। अनेकप्रकार के तप और संयम वर्तता है; किन्तु अन्तरलीनतापूर्वक आत्मा की श्रद्धा नहीं वर्तती वे मुनि श्रमणाभास है। वे आदरयोग्य नहीं हैं। "
उक्त गाथाओं और उसकी तत्त्वप्रदीपिका टीका के प्रतिपादन की विशेषता यह है कि गाथाओं में तो यह कहते हैं कि यदि कोई मुनिराज सामने से आ रहे हों तो उनकी नग्न दिगम्बर दशा देखकर सर्वप्रथम खड़े होकर उनकी विनय और उन्हें यथायोग्य नमस्कारादि करना चाहिए । गुणों के अनुसार भेद करना तो उसके बाद की बात है। तात्पर्य यह है कि सामान्य रूप से तो सभी की विनय करना चाहिए। बाद में गुणाधिकता के अनुसार भेद करके विनय में यथायोग्य अन्तर किया जाना चाहिए । इसी बात को टीका में इसप्रकार लिखते हैं कि मुनिराजों की सामान्य विनय और गुणाधिकों की विशेष विनय का जिनागम में निषेध नहीं है ।
तात्पर्य यह है कि करने योग्य तो एकमात्र शुद्धोपयोग ही है; किन्तु शुभोपयोग के काल में यदि उक्त विनयादि क्रियायें होती हैं तो उनसे उनका मुनित्व खण्डित नहीं होता। पुण्यबंध की कारणरूप ऐसी क्रियायें मुनि भूमिका में अनुचित नहीं हैं; किन्तु उनसे बंध ही होगा, निर्जरा नहीं । यद्यपि श्रमणों के प्रति विनय-वैयावृत्ति आदि का निषेध नहीं है; तथापि श्रमणाभासों के प्रति तो निषेध ही है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ४०८
दिव्यध्वनि में स्वभावगत स्वतंत्रता की घोषणा के साथ-साथ पर्याय में पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए स्वावलम्बन का मार्ग बताया गया है । | रंग, राग और गुणभेद से भिन्न निज शुद्धात्मा पर दृष्टि केन्द्रित करना ही स्वावलम्बन है । स्वतन्त्रता अपने बल पर ही प्राप्त की जा सकती है। अनन्त सुख और स्वतन्त्रता भीख में प्राप्त होनेवाली वस्तुएँ नहीं हैं और न उन्हें दूसरों के बल पर प्राप्त किया जा सकता है।
ह्न तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ- ८३