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प्रवचनसार अनुशीलन की अथवा वीतराग चारित्र लक्षण शुद्धोपयोगियों की वैयावृत्ति करते हैं; उस समय उस वैयावृत्ति के निमित्त से लौकिकजनों से सम्भाषण करते हैं, शेष समय में नहीं ह्र ऐसा भाव है।
जब कोई मुनिराज अन्य मुनिराजों की वैयावृत्ति करते हैं तो शरीर से निर्दोष वैयावृत्ति करते हैं एवं वचन से धर्मोपदेश रूप वैयावृत्ति करते हैं।
औषधि, अन्न, पान आदि गृहस्थों के अधीन हैं। इसकारण वैयावृत्तिरूप धर्म गृहस्थों के मुख्य है, मुनियों के गौण है।"
यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि रोगी, बाल और वृद्ध मुनिराजों के साथ गुरुओं को लेना तो उचित नहीं; क्योंकि रोगी, बाल और वृद्ध मुनिराज तो अशक्त हैं, पर गुरुजन तो अशक्त नहीं हैं। इसप्रकार का विकल्प आचार्य जयसेन को भी रहा होगा; यही कारण है कि उन्होंने विकल्प (दुसरे अर्थ) के रूप में गुरु शब्द का अर्थ स्थलकाय भी किया है; क्योंकि काय की स्थूलता (मोटापा) भी एक बीमारी है, अशक्ति है। ___इन गाथाओं के भाव को पंडित देवीदासजी २ कवित्त, १ चौपाई
और २ दोहों ह्र इसप्रकार कुल मिलाकर ५ छन्दों में एवं कविवर वृन्दावनदासजी ३ मनहरण कवित्तों में गाथा और उनकी टीका के अनुसार ही स्पष्ट करते हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"भावलिंगी मुनिराज के शरीर में रोग आदि हो जावें और उसे देखकर अन्य भावलिंगी मुनिराज शुभोपयोग में होवें तो वे उससमय उपसर्गयुक्त मुनिराज की सेवा करते हैं। मिथ्यादृष्टि मुनिराज की सेवा नहीं करते । तथा अन्य समय अपने शुद्धात्मा की आराधना में ही व्यतीत करते हैं।'
शुद्धात्मपरिणति में लीन मुनिराज को शुभोपयोग होने पर रोगी, गुरु, बाल, वृद्ध किसी भी प्रकार के मुनिराज की सेवा के निमित्त से लौकिकजनों १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ३४५
गाथा २५२-२५४ के साथ बातचीत करने का निषेध नहीं है।
सेवा का भाव आने पर मुनिराज का रोग दूर होगा ह्र ऐसा नहीं हैं, किन्तु सेवाभाव उत्पन्न होने पर लौकिकजनों के साथ बातचीत करें, वैद्य को रोगादि के बारे में पूछे? रोग के नष्ट होने में कितना समय लगेगा? कौनसा रोग है? इत्यादि बातों को पूछने का निषेध नहीं है।
इससे आगे बढ़कर यदि वे लौकिकजनों से संसारी कार्यों की बातचीत करें तो उसका अवश्य निषेध है।'
मुनिराज की वैयावृत्ति, जिनेन्द्र देव की भक्ति आदि शुभचर्या का भाव मुनिराज को गौणरूप से वर्तता है। आत्मा के शुद्धस्वभाव के भानपूर्वक उन्हें अन्तर लीनता बढ़ गई है, शरीर के प्रति वर्तनेवाला राग कम हुआ है। सेवा आदि का शुभभाव होता है, किन्तु वह अत्यन्त अल्प है अर्थात् गौण है । मुख्यता तो शुद्धोपयोग की है।
गृहस्थ को भी पुण्य-पाप की रुचि नहीं है। ध्येय तो एक शुद्ध आत्मा के प्रति ही है; परन्तु गृहस्थदशा में बुद्धिपूर्वक राग का अभाव करके शुद्धोपयोग बहुत कम होता है और दया-दान-व्रत-पूजा आदि का शुभोपयोग मुख्यपने होता है ह्र ऐसा तीर्थंकर परमात्मा की दिव्यध्वनि में आया है।
गृहस्थ तथा मुनिराज ह्र दोनों को ही शुद्धात्मा की रुचि तो समान है; किन्तु अन्तर यह है कि मुनिराज के राग घट गया है तथा श्रावक को अभी भी दया-दान प्रभावना आदि का राग वर्तता है, उन्हें आत्मा का भान होने पर भी मुनिराजों के समान स्वरूप लीनता का अभाव है; अतः शुभभाव मुख्य है। मुनिराज को केवलज्ञान प्रगट करनेवाली तात्कालिक दशा वर्तती है और गृहस्थ को केवलज्ञान प्रगट करनेवाली तात्कालिक दशा नहीं है।"
१. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ३४७ २. वही, पृष्ठ ३५१
३. वही, पृष्ठ ३५३